मनुष्य की महानता की पहचान उसके पद, अधिकार, ऐश्वर्य या धन-संपदा से नहीं, बल्कि उसकी विनम्रता, उदारता और कर्तव्य परायणता से होती है। व्यक्ति का चरित्र ही उसकी महानता की सच्ची कसौटी है। यानी उसके चरित्र की पूर्ति धन, यश, विद्वत्ता आदि में से कोई नहीं कर सकता। महान व्यक्ति अपने चरित्र की पवित्रता बनाए रखने के लिए हर तरह के त्याग के लिए हमेशा तैयार रहता है। चरित्र के बगैर व्यक्ति का जीवन वैसा ही है जैसे रीढ़ की हड्डी के बगैर शरीर। स्वामी विवेकानंद के शरीर पर भगवा वस्त्र और पगड़ी को देखकर एक विदेशी व्यक्ति ने टिप्पणी की थी। यह आपकी कैसी संस्कृति है। तन पर केवल एक भगवा चादर लपेट रखी है। कोट-पैंट जैसा कुछ भी पहनावा नहीं है। इस पर स्वामी जी मुस्कराए और बोले-हमारी संस्कृति आपकी संस्कृति से बिल्कुल अलग है। आपकी संस्कृति का निर्माण आपके दर्जी करते हैं, जबकि हमारी संस्कृति का निर्माण हमारा चरित्र करता है। संस्कृति वस्त्रों में नहीं, बल्कि चरित्र के विकास में है। हमारे चरित्र का निर्माण हमारे विचार करते हैं। इसलिए चरित्र को बदलने के लिए विचारों को बदलना जरूरी होता है। असल में ज्ञान का सामान्य अर्थ जानकारी है, लेकिन वास्तविक ज्ञान आत्मज्ञान की जानकारी है। आत्मज्ञान ही वह अमृत है जिसे पाने के बाद और कुछ पाना शेष नहीं रह जाता। एक संत के पास उनका एक शिष्य आया और उनसे पूछा, ‘मैं कौन हूं?’ गुरुजी ने एक थाली में पानी भरकर कहा था इसमें अपना मुख देखोगे तो तुम अपना साक्षात्कार कर लोगे। जब शिष्य ने उसमें अपना मुख देखा तो उसे लगा कि वह अति सुंदर है, लेकिन अगले ही पल उसे महसूस हुआ कि समय के साथ उसके मुख का स्वरूप भी बदल जाएगा और तब वह इतना सुंदर नहीं रहेगा। उसी पल उसे अपने सुंदर मुख से घृणा होने लगी और वह यह बात समझ गया कि जो चीज कुछ समय बाद जीर्ण-क्षीण हो जाए वह उसका स्वरूप कैसे हो सकता है।
जब व्यक्ति ‘मैं’ को त्यागता है तभी वह महान बनता है। ‘मैं’ का त्याग तभी संभव है जब व्यक्ति खुद पर संयम रख सके। खुद पर काबू रखने वाला व्यक्ति आत्मप्रशंसा से बचता है जिससे उसमें धीरज, सेवा, शुद्धता, शांति, आज्ञा, अनुशासन और मेहनत के भाव पनपते हैं। ऐसे व्यक्ति सत्य का साथ कभी नहीं छोड़ते और मनुष्य की सेवा को ही अपना धर्म मानते हैं।
[ महर्षि ओम ]