बलबीर पुंज

अमेरिका के 107 सांसदों ने हाल में केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह को एक चिट्ठी लिखी। इनमें रिपब्लिकन और डेमोक्रेट दोनों सांसद शामिल हैं। चिट्ठी में इन सांसदों ने सरकार से ‘कंपैशन इंटरनेशनल’ नाम के संगठन पर लगे वित्तीय प्रतिबंध हटाने की मांग की है। कंपैशन इंटरनेशनल असल में एक अंतरराष्ट्रीय ईसाई धर्मार्थ संस्था है। मौजूदा दौर में भारत और अमेरिका के संबंधों में प्रगाढ़ता पूरे चरम पर है लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि अमेरिका को भारत के नीतिगत निर्णयों में हस्तक्षेप करने का अधिकार मिल जाता है। सामाजिक न्याय, शिक्षा, महिला सशक्तीकरण, मजहबी सहिष्णुता, पर्यावरण, मानवाधिकार और पशु-अधिकारों की रक्षा के नाम पर देश में काम कर रहे अधिकतर स्वयंसेवी और गैर-सरकारी संगठन, भारत की कालजयी सनातन संस्कृति और बहुलतावाद पर चोट पहुंचाने में जुटे हैं। ऐसा ही आरोप ‘कंपैशन इंटरनेशनल’ पर भी लगा है, जिसके लिए अमेरिकी सांसद रहनुमा बनकर आगे आए हैं।
1968 से देश में सक्रिय इस संस्था को विस्तृत जांच के बाद गत वर्ष मई से ‘पूर्व अनुमति श्रेणी’ में रखा गया है। इसके अंतर्गत बिना सरकारी अनुमति के कोई भी दानदाता किसी संस्था को दान नहीं दे सकता। प्रतिबंध के कारण इस संस्था ने 15 मार्च के बाद भारत में अपनी सेवाएं समाप्त कर दीं। मानवतावाद का नारा बुलंद किए यह संगठन भारत के अधिकतर ईसाई गैर-सरकारी संस्थाओं यानी एनजीओ एवं चर्चों को औसतन हर वर्ष 300 करोड़ रुपये का अनुदान देती थी। इस संस्था द्वारा भारत में एक लाख 45 हजार पिछड़े और गरीब बच्चों को कथित रूप से ‘मानवीय सेवाएं’ देने का दावा किया जा रहा है। मार्च, 2016 में कोलंबिया विश्वविद्यालय स्थित नेशनल सेंटर फॉर चिल्ड्रन इन पॉवर्टी की एक रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका में हर दस में से चार बच्चे गरीबी में जीवन व्यतीत कर रहे हैं। न केवल गरीबी, बल्कि अमेरिका के अधिकांश बच्चे भी अपने माता-पिता का तलाक होने के बाद मानसिक प्रताड़ना का सामना कर रहे हैं। एक आंकड़े के अनुसार अमेरिका में हर 36 सेकेंड में एक तलाक होता है। आखिर क्या वजह है कि ‘कंपैशन इंटरनेशनल’ जैसी संस्थाओं को अपने मुल्क में परेशान बच्चों की दिक्कतों के बजाय सात समंदर पार देश के अभागे बच्चों की ही चिंता क्यों सताती है? उसे अमेरिकी बच्चों से हमदर्दी क्यों नहीं होती? इस सवाल का जवाब अमेरिका के ईसाई बहुल होने में छिपा है। इस संस्था की आधिकारिक वेबसाइट पर स्पष्ट रुप से लिखा हुआ है, ‘हमारी मंशा बच्चों को आध्यात्मिक, आर्थिक, सामाजिक और गरीबी से निकालकर एक जिम्मेदार ईसाई बनाने की है।’
क्रिस्टोफर कोलंबस ने ईसाई मत के प्रचार-प्रसार अभियान का हिस्सा बनकर 1492 में अमेरिका की खोज की थी, जहां के मूल निवासियों को कालांतर में रेड इंडियंस का नाम दिया गया। क्या यह सत्य नहीं है कि अमेरिका की खोज के पश्चात, श्वेत शासकों की विस्तारवादी नीति और मजहबी दमनचक्र ने आज इस धरती के मूल ध्वजवाहक और उनकी संस्कृति को संग्रहालय की शोभा बढ़ाने तक सीमित कर दिया है? भारत की बहुलतावादी और कालजयी सनातनी परंपरा सदियों से भय, लालच और धोखे की शिकार रही है। देश में ईसाई मिशनरियों और चर्चों की तथाकथित ‘सेवा’ उस गुप्त एजेंडे का भाग है, जिसकी शुरूआत 15वीं शताब्दी में गोवा में पुर्तगालियों के आगमन और 1647 में ब्रिटिश चैपलेन के मद्रास पहुंचने के साथ हुई थी। 1813 में चर्चों के दवाब में अंग्रेजों ने ईस्ट इंडिया चार्टर में विवादित धारा जोड़ी जिसके बाद ब्रिटिश पादरियों और ईसाई मिशनरियों का भारत में ईसाई मत के प्रचार-प्रसार का मार्ग प्रशस्त हो गया। 1857 की क्रांति में भारत का नव-मतांतरित ईसाई समाज पूर्ण रूप से स्वाधीनता के विरोध में और अंग्रेजों के साथ खड़ा था। प्रारंभ में ईसाई मिशनरियों ने योजनाबद्ध तरीके से हिंदू समुदाय में ब्राह्मण और शिक्षित वर्ग के मतांतरण का प्रयास किया, किंतु इसमें उन्हें सफलता नहीं मिली। उसके बाद 19वीं शताब्दी में उन्होंने हिंदुओं में शोषित और वंचित वर्ग, जिन्हे आज दलित कहकर संबोधित किया जाता है, उन पर अपना ध्यान केंद्रित किया। यह सिलसिला आज भी जारी है।
अभी कुछ दिन पहले छत्तीसगढ़ के कोरबा और उत्तर प्रदेश के आगरा और कुशीनगर में जबरन मतांतरण के मामले सामने आए हैं। आत्मा के इस कुत्सित व्यापार का संज्ञान स्वतंत्रता से पूर्व गांधीजी ने भी गंभीरता से लिया था। मई, 1935 में एक मिशनरी नर्स ने उनसे पूछा था कि क्या आप मतांतरण के लिए मिशनरियों के भारत आगमन पर रोक लगाना चाहते हैं? उन्होंने कहा था, ‘अगर सत्ता मेरे हाथ में हो और मैं कानून बना सकूं तो मैं मतांतरण का यह सारा खेल ही बंद करा दूं।’ वास्तव में अमेरिका भी उसी औपनिवेशिक मानसिकता से ग्रस्त है, जिसमें ब्रिटिश शासकों ने भारत में अपना राज कायम रखने के लिए समाज को बांटने का काम किया था। अमेरिकी सत्ता अधिष्ठानों पर चर्च का कितना प्रभाव है, यह उसके सांसदों द्वारा भारतीय गृह मंत्रालय को लिखी चिट्ठी से साफ हो जाता है।
अमेरिका, यूरोपीय देश और खाड़ी के दानदाताओं से प्रति वर्ष कम से कम दस हजार करोड़ रुपये की वित्तीय सहायता देश के स्वयंसेवी संगठनों को मिलती है, लेकिन 2014 में जब से नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली राजग सरकार ने सत्ता संभाली है, इन संगठनों को मिलने वाले विदेशी अनुदानों में लगभग तिगुनी बढ़ोतरी देखी गई है। गृह मंत्रालय के अनुसार, 2013-14 में देश की गैर-सरकारी संस्थाओं को 13,360 करोड़ रुपये का विदेशी चंदा मिला। 2014-15 में यह आंकड़ा 24,085 करोड़ रहा तो 2015-16 में यह धनराशि 34,035 करोड़ रुपये तक पहुंच गई। हाल के वर्षों में देश के जिस किसी भी हिस्से में विकास परियोजनाएं चल रही हैं वहां विभिन्न नामों से बनाए गए गैर-सरकारी संगठन अवरोधक बने हुए हैं। जून 2015 को ‘इंपैक्ट ऑफ एनजीओज ऑन डेवलपमेंट’ की रिपोर्ट में इसका स्पष्ट उल्लेख है कि विदेशी धन के दम पर भारत में कुछ गैर-सरकारी संस्थाएं विकास परियोजनाओं का विरोध कर रही हैं। इससे देश का विकास अवरुद्ध हो रहा है और सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि में अपेक्षित तेजी नहीं आ पा रही है। कई स्वयंसेवी संस्थाएं तो किसी निजी कंपनी की भांति काम कर रही हैं।
भारत में पंजीकृत 32 लाख से अधिक स्वयंसेवी संगठनों में से लगभग 30 लाख संगठन वार्षिक वित्तीय विवरण जमा नहीं कराते। सर्वोच्च न्यायालय इस संबंध में सरकार को दिशा-निर्देश जारी कर चुका है। सरकार ने जिन बीस हजार एफसीआरए पंजीकृत गैर-सरकारी संगठनों के लाइसेंस निरस्त किए हैं, उनमें ग्रीनपीस, तीस्ता सीतलवाड़ के सबरंग सहित दो एनजीओ और इंदिरा जयसिंह का ‘लायर्स कलेक्टिव’ भी शामिल है। जब कभी विदेशी वित्त-पोषित गैर-सरकारी संगठनों की अनुचित कार्यशैली पर प्रश्न खड़ा होता है तो चर्च और उसके समर्थक छद्म-पंथनिरपेक्ष उपासना की स्वतंत्रता का शोर मचाने लगते हैं। ऐसे संगठन न केवल भारत में विकास कार्यक्रमों को बाधित करने में संलग्न है, बल्कि मानवाधिकार हनन के मिथ्या प्रचार से विदेशों में भारत की छवि भी कलंकित करते हैं। इस कुत्सित एजेंडे के कारण ही मोदी सरकार को कई स्वयंसेवी संगठनों पर कार्रवाई के लिए बाध्य होना पड़ा। क्या बुनियादी ढांचे और उद्योगों के विकास के बिना देश से गरीबी और बेरोजगारी को दूर करना संभव है? यदि नहीं तो विदेशी धनबल और विदेशी एजेंडे पर काम करने वालों इन संगठनों पर कार्रवाई गलत क्यों है?
[ लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं ]