हर व्यक्ति जितना अपने दुखों से पीड़ित नहीं है उससे ज्यादा वह दूसरों के सुखों से पीड़ित है। यह उसकी संकीर्ण मानसिकता और छोटी सोच का ही परिणाम है कि वह दुखों का सृजन करता है। इसके बावजूद वह सोचता है कि ऐसा मेरे साथ ही क्यों हुआ या फिर दुनिया के सारे दर्द मेरे लिए ही क्यों बने हैं, जबकि अगर सोचा जाए तो महत्वपूर्ण यह नहीं होता कि आपके पास पीड़ाएं कितनी हैं, जरूरी यह होता है कि आप उस दर्द के साथ किस तरह खुश रह जाते हैं। जब हमारी दिशाएं सकारात्मक होती हैं तो हम सृजनात्मक रच ही लेते हैं। हमें कृतज्ञ तो होना ही होगा, क्योंकि इसके बिना छोटी-छोटी तकलीफें भी पहाड़ जितनी बड़ी बन जाती हैं। एक जिंदगी जीता है, दूसरा उसे ढोता है। एक दुख में भी सुख तलाश लाता है, दूसरा प्राप्त सुख को भी दुख मान बैठता है। एक अतीत भविष्य से बंधकर भी वर्तमान के निर्माण की बुनियाद बनाता है तो दूसरा अतीत और भविष्य में खोया रहकर वर्तमान को भी गंवा देता है।
कृतज्ञता जरूरी है। सभी धर्मों में कृतज्ञता का एक महत्वपूर्ण स्थान है। सिसरो से लेकर महात्मा बुद्ध तक और अन्य कई दार्शनिक व आध्यात्मिक शिक्षकों ने भी कृतज्ञता को भरपूर बांटा है और उससे प्राप्त खुशी को उत्सव की तरह मनाया है। दुनिया के सभी बड़े धर्म हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई और बौद्ध मानते हैं कि किसी के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करना एक भावनात्मक व्यवहार है और अंत में इसका अच्छा प्रतिफल प्राप्त होता है। बड़े-बड़े पादरी और पंडितों ने इस विषय को लेकर बहुत-सा ज्ञान बांटा है, लेकिन आज तक इन विद्वानों ने इसे विज्ञान का रूप नहीं दिया है। महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में भी इस बात का उल्लेख किया है कि परमात्मा ने जो कुछ आपको दिया है उसके लिए उनके प्रति कृतज्ञता प्रकट करो। हालांकि इसका विज्ञान बस इस छोटे से वाक्य में समाहित है कि जितना आप देंगे उससे कहीं अधिक यह आपके पास लौटकर आएगा, लेकिन इसे समझ पाना हर किसी के वश की बात नहीं है। ‘कितना दें और क्यों’ इस बात का गणित बेहतर ढंग से समझने की जरूरत है। किसी के लिए कुछ करके जो संतोष मिलता है उसे शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता। फिर वह कड़कती ठंड में किसी गरीब को एक प्याली चाय देना ही क्यों न हो और उसके मन में ‘जो मिला बहुत मिला-शुक्रिया’ के भाव हों तो जिंदगी बड़े सुकून से जी जा सकती है, काटनी नहीं पड़ती।
[ ललित गर्ग ]