राजीव सचान

स्कूलों में फीस का मसला पहले से ही अदालतों के समक्ष पहुंच चुका था। अब स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा का सवाल भी अदालतों तक पहुंच गया। ऐसा केंद्र और राज्य सरकारों की नाकामी के कारण ही हुआ, क्योंकि गुरुग्राम के रेयान इंटरनेशनल स्कूल में एक छात्र की हत्या के बाद यह पता चल रहा कि स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा को लेकर कोई ठोस नियम-कानून ही नहीं और जो हैैं भी वे अपर्याप्त और निष्प्रभावी हैैं। रेयान स्कूल में छात्र की मौत के बाद सुप्रीम कोर्ट ने स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा के लिए दिशानिर्देश बनाने के आदेश दिए हैं। मामले की गंभीरता देख सरकार ने भी विभिन्न विभागों के सचिवों को मिलाकर एक समिति गठित कर दी है। ऐसा नहीं है कि इसके पहले स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा सुनिश्चित करने के उपाय करने की जरूरत महसूस नहीं हुई हो। ऐसी जरूरत न जाने कितनी बार महसूस की गई, लेकिन राज्य सरकारों और साथ ही केंद्र सरकार के स्तर पर कुछ भी नहीं किया गया। अब ऐसा लग रहा है जैसे सभी को रेयान स्कूल की घटना का इंतजार था? पिछले वर्ष जनवरी में इसी स्कूल की दिल्ली शाखा में एक छात्र की टैंक में गिरकर मौत हो गई थी। उस मौैत खबर भी सुर्खियां बनी थीं, लेकिन किसी ने परवाह नहीं की। नतीजा यह रहा कि अभी तक पता नहीं चल पाया कि इस बच्चे की मौत कैसे हुई? हाल में दिल्ली से सटे गाजियाबाद में भी एक छात्र की संदिग्ध हालत में मौत हुई। इस छात्र के माता-पिता धरना-प्रदर्शन करके जब हार गए तो वे सुप्रीम कोर्ट पहुंचे। सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें हाईकोर्ट जाने को कहा है। ये महज अपवाद के तहत आने वाले मामले नहीं हैैं। बहुत दिन नहीं हुए जब बेंगलुरु में एक के बाद एक स्कूलों में बच्चों के यौन शोषण के मामले सामने आए थे। अभिभावकों ने तमाम धरना-प्रदर्शन किया, लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात वाला ही रहा।
सरकारी अथवा निजी स्कूलों में बच्चों की सुरक्षा शासन एवं प्रशासन के अधिकार क्षेत्र वाला मसला है, लेकिन अब इस मसले को भी सुप्रीम कोर्ट को देखना पड़ रहा है। यह शासन-प्रशासन के अधिकार क्षेत्र वाला एकलौता ऐसा मसला नहीं जो सुप्रीम कोर्ट के सामने पहुंचा हो। इस तरह के न जाने कितने मामले हैं जो उच्च न्यायालयों और सर्वोच्च न्यायालय तक पहुंचते रहते हैं। राज्यों और केंद्र सरकार के वकील अब आए दिन अदालतों में खड़े दिखते हैं। नि:संदेह इसका एक कारण अदालतों की हर मामले को सुनने और सुलझाने की प्रवृत्ति भी है। इस प्रवृत्ति को इसलिए और बढ़ावा मिल रहा, क्योंकि कुछ लोगों ने बात-बात पर अदालत का दरवाजा खटखटाना अपनी आदत बना लिया है। कई लोग ऐसे हैं जो करीब-करीब हर दिन कोई न कोई जनहित याचिका लिए अदालत के समक्ष खड़े मिलते हैं। कई बार तो नीतिगत मसलों पर भी जनहित का सवाल उठाकर अदालत का दरवाजा खटखटा दिया जाता है। रोहिंग्या शरणार्थियों के बारे में सरकार ने इतना ही कहा था कि वह उन्हें बाहर करेगी, लेकिन वह ऐसा कुछ करने का उपक्रम करती कि उसके पहले ही वकीलों की एक टोली सुप्रीम कोर्ट पहुंच गई। यह अदालती सक्रियता का दुर्लभ उदाहरण है। बीते कुछ समय से तो हालत यह है कि कोई कानून बनता बाद में है, उसे अदालत में चुनौती देने की तैयारी पहले कर ली जाती है।
आधार कानून तो अदालत के समक्ष है ही, आधार संबंधी बिल को धन विधेयक में बदलने का फैसला भी अदालत के निर्णय की बाट जोह रहा है। ताजा-ताजा बना रेरा कानून भी अदालतों के समक्ष हाजिर है, लेकिन हर नियम-कानून और शासन-प्रशासन के फैसलों के अदालतों के समक्ष जाने के लिए केवल याचिकाबाज लोगों को ही जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। इस स्थिति के लिए एक बड़ी हद तक खुद सरकारें और उनका प्रशासन भी जिम्मेदार है। भले ही सरकारें इस बात से परेशान हो गई हों कि न्यायपालिका उनके अधिकार क्षेत्र में अपना दखल बढ़ाती जा रही है, लेकिन उनके अधिकार क्षेत्र वाले मसले अदालतों के सामने जा रहे हैैं तो उनकी अपनी गलतियों के कारण।
किसी को इस भ्रम में नहीं रहना चाहिए कि कोई मामला अदालत में पहुंचने का मतलब उसका निस्तारण हो जाना है। यदि ऐसा होता तो गंगा न जाने कब साफ हो गई होती और हमारी पुलिस भी सुधर गई होती। पुलिस सुधार संबंधी सुप्रीम कोर्ट के सात सूत्रीय दिशानिर्देशों पर दस साल बाद भी अमल नहीं हो पाया है और बीते दिनों जेलों में सुधार संबंधी 11 सूत्रीय दिशानिर्देश आ गए। जैसे सड़कों पर बने तमाम धर्मस्थल अभी भी अपने स्थान पर मौजूद हैं उसी तरह रात दस बजे के बाद सार्वजनिक स्थलों पर तेज ध्वनि वाले लाउडस्पीकर भी खूब सुनाई देते हैैं। इसी तरह सरकारी बंगलों में तमाम अपात्र लोग भी अभी काबिज हैं। कुछ समय पहले सुप्रीम कोर्ट ने क्रिकेट बोर्ड को रास्ते पर लाने की ठानी थी, लेकिन शायद ही किसी को यह लगता हो कि वह अपने मकसद में कामयाब है। जैसे लोगों के लिए यह समझना कठिन है कि क्रिकेट बोर्ड को कौन चला रहा है वैसे ही यह भी कि सुप्रीम कोर्ट की काले धन वाली समिति क्या कर रही है? भले ही सुप्रीम कोर्ट से आए दिन ऐसी खबर आती हो कि उसने इन्हें-उन्हें फटकारा, लेकिन सच यह है कि कुछ लोग वर्षों तक अदालत-अदालत खेलते रहते हैैं। एक नहीं अनेक मामले यही रेखांकित करते हैैं कि अदालतें भी समस्या का समाधान करने में नाकाम हैैं।
इस स्थिति का मूल कारण है प्रशासनिक सुधारों के साथ-साथ न्यायिक सुधारों की अनदेखी। जब तक इन दोनों सुधारों की अनदेखी की जाती रहेगी, आम लोगों की समस्याएं बढ़ती रहेंगी। विडंबना यह है कि जैसे सरकार प्रशासनिक सुधारों की दिशा में बढ़ने के लिए तैयार नहीं दिखती वैसे ही सुप्रीम कोर्ट भी न्यायिक सुधारों के प्रति तत्पर नहीं नजर आता। सुप्रीम कोर्ट यह तो चाहता है कि चुनाव आयुक्तों और केंद्रीय सतर्कता आयुक्त की नियुक्तियां पारदर्शी तरीके से हों, लेकिन ऐसी चाहत न्यायाधीशों की नियुक्ति के मामले में नहीं दिखती। कहना कठिन है कि सुप्रीम कोर्ट को इसके लिए कैसे राजी किया जा सकता है कि वह न्यायपालिका में सुधार के लिए आगे बढ़े, लेकिन कम से कम सरकार और विशेष रूप से केंद्र सरकार को तो यह समझना चाहिए कि प्रशासनिक सुधारों की और अधिक समय तक अनदेखी करने का मतलब है खुद को समस्याओं से घेरना।
[ लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैैं ]