संजय गुप्त
मध्य प्रदेश के मंदसौर से शुरू हुए किसान आंदोलन ने जिस तरह अराजक रूप लिया और उसकी आग हरियाणा, राजस्थान, पंजाब, महाराष्ट्र और तमिलनाडु तक पहुंची उससे इन राज्य सरकारों के साथ मोदी सरकार के समक्ष भी एक बड़ी चुनौती खड़ी हो गई है। चूंकि मामला किसानों से जुड़ा है इसलिए विपक्ष ने भी राजनीतिक लाभ उठाने की कोशिश करने में देर नहीं लगाई। मंदसौर की घटना के बाद किसानों को शांत करने के लिए जहां मध्य प्रदेश सरकार ने तरह-तरह की रियायत देने की घोषणा की वहीं महाराष्ट्र सरकार ने उत्तर प्रदेश सरकार की तरह छोटे एवं सीमांत किसानों का कर्ज माफ करने की घोषणा की। इसके बाद से अन्य राज्य सरकारें भी दबाव में आ गई हैं। राज्य सरकारों के साथ केंद्र सरकार भी किसानों को राहत-रियायत देने की कुछ न कुछ घोषणाएं कर रही हैं। इस सबके बावजूद ऐसा लगता नहीं कि बात बनने वाली है, क्योंकि कई राज्यों में किसान कर्ज माफी की मांग पर अड़े हुए हैं। इस पर यकीन करना कठिन है कि अन्य राज्यों के किसान आंदोलन के लिए सिर्फ इसलिए आगे आ गए, क्योंकि मंदसौर में किसानों के आंदोलन का दबाव न झेल पाने वाली पुलिस के हाथों छह किसानों की जान चली गई।
किसानों की मांगों के मामले में इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि उनकी कुछ मांगों पर गौर करने की जरूरत है। अपने देश में आबादी का एक बड़ा हिस्सा कृषि से जुड़ा है और वह बेहतर जीवन की तलाश में है। बढ़ते भौतिकवाद ने उसकी इच्छाओं को और बढ़ा दिया है। इसमें कुछ भी अनुचित नहीं, लेकिन यह भी सत्य है कि उसकी इच्छाएं केवल किसानी से पूरी होने वाली नहीं। किसान एक ऐसे समय खुद को संकट में पा रहा है जब पिछले दो सालों से मानसून ठीक रहने के चलते उसकी उपज बढ़ी है। समस्या यह है कि उन्हें उनकी उपज का सही मूल्य नहीं मिल पा रहा है। इससे विचित्र और कुछ नहीं हो सकता कि जिस देश में भुखमरी के हालात पैदा होते रहते हों वहां के किसान अधिक पैदावार के कारण संकट का सामना करें। अधिक पैदावार होने से कृषि उपज कहीं कम मूल्य पर बिक पाती है और जब ऐसा होता है तो कई बार किसानों को लागत मूल्य भी नहीं मिल पाता। भले ही सरकार यह कह रही है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम कीमत पर कृषि उपज नहीं खरीदी जाएंगी और अगर ऐसा किया जाता है तो यह कानूनी अपराध होगा, लेकिन इस अपराध की रोकथाम मुश्किल है, क्योंकि केंद्र और राज्य सरकारों के लिए समूची कृषि उपज खरीद पाना संभव नहीं। कृषि उपज का एक बड़ा हिस्सा तो आढ़ती एवं अन्न व्यापारी ही खरीदते हैं।
हालांकि मोदी सरकार ने किसानों की आय को अगले पांच वर्षों में दोगुना करने का वादा किया है और इस दिशा में कई ऐसे कदम उठाए हैं जो सरकार की गंभीरता को दर्शाते हैं, लेकिन किसानों को अपनी हालत में कोई विशेष बदलाव नजर नहीं आ रहा है। चूंकि उन्हें अपने जीवन में किसी बुनियादी बदलाव के आसार नहीं नजर आ रहे हैं इसलिए उनकी अधीरता बढ़ती जा रही है। ध्यान रहे कि बीते तीन सालों में न तो खाद्य प्रसंस्करण उद्योग को बढ़ावा मिल सका है और न ही कोल्ड चेन की स्थापना हो पाई है। ये दोनों कार्य किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। यह भी ध्यान रहे कि किसानों की आय का एक जरिया पशुपालन भी है। किसानों को पशुपालन से करीब 20-25 फीसद आय होती है। केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले के बाद पशु खरीद-बिक्री के नए नियमों की जो अधिसूचना जारी की उससे किसानों की समस्या बढ़ती दिख रही है।
यह ठीक है कि नई फसल बीमा योजना के बाद फसलों के नुकसान पर क्षतिपूर्ति की उचित व्यवस्था हो गई है और अब किसानों को खाद के लिए भटकना नहीं पड़ रहा है, क्योंकि उसकी कालाबाजारी रुक गई है, फिर भी कृषि क्षेत्र के उत्थान के लिए एक दीर्घकालिक योजना की आवश्यकता है। कृषि को चार-पांच मंत्रालय सीधे तौर पर प्रभावित करते हैं, लेकिन समस्या यह है कि उनमें समुचित तालमेल का अभाव दिखता है। खाद्य, खाद्य प्रसंस्करण और उर्वरक मंत्रालयों का सीधा संबंध कृषि से है। सरकार के गठन के समय प्रधानमंत्री मोदी ने एक क्षेत्र के मंत्रालयों के बीच समन्वय की बात की थी। कुछ मंत्रालयों ने तो इसमें बेहतर काम किया, पर कृषि क्षेत्र से संबंधित मंत्रालयों के संदर्भ में यह नहीं कहा जा सकता कि उनमें बेहतर समन्वय कायम हो पाया है। उक्त मंत्रालयों के साथ-साथ ग्र्रामीण विकास मंत्रालय और सिंचाई व्यवस्था को देखने वाले जल संसाधन मंत्रालय का भी कृषि मंत्रालय के साथ तालमेल बनना चाहिए। बेहतर हो कि इन सभी मंत्रालयों के बीच तालमेल के लिए कोई नोडल एजेंसी बने। यह काम प्राथमिकता के आधार पर किया जाना चाहिए, क्योंकि कृषि उत्थान के साथ ग्र्रामीण अर्थव्यवस्था के विकास पर ध्यान देने के अलावा और कोई उपाय नहीं।
मोदी सरकार को किसानों की समस्याओं का समाधान खोजने के क्रम में यह भी देखना चाहिए कि किसानों के पीछे वे कौन लोग हैं जो अपनी स्वार्थ पूर्ति के लिए किसानों को भड़का रहे हैं। किसानों के नेता आढ़ती या अनाज व्यापारी भी होते हैं। वे अपनी नेतागीरी चमकाने के लिए किसानों के हित की आड़ लेते हैं। अनाज की खरीद-फरोख्त के साथ उनके अन्य धंधे भी होते हैं जिनमें नकद लेन-देन अधिक होता है। यह वही वर्ग है जो नोटबंदी के फैसले के विरोध में रहा था। लगता है कि अब वह जीएसटी के रूप में टैक्स की नई व्यवस्था को भी पचा नहीं पा रहा है। नोटबंदी ने इस वर्ग को करारा झटका दिया था। यह वर्ग यह सोचकर सहमा है कि जीएसटी लागू होने से उसे पारदर्शिता के दायरे में आना होगा। यदि कोई जांच हो सके तो शायद यही सामने आए कि यही वर्ग किसानों को भड़काकर उन्हें आंदोलन के रास्ते ले जा रहा है ताकि केंद्र सरकार को दबाव में लिया जा सके। यह स्पष्ट ही है कि विपक्ष भी इसे अपने लिए अवसर के रूप में देख रहा है। ऐसे में मोदी सरकार को सतर्क रहना होगा। उसे राज्यों के साथ मिलकर किसानों को संतुष्ट करना होगा। ऐसा करके ही वह किसी राजनीतिक नुकसान से बची रह सकती है।
नि:संदेह केंद्र सरकार को कर्ज माफी की मांग मानने से भी बचना होगा। वैसे तो वित्तमंत्री अरुण जेटली ने साफ कह दिया है कि जो राज्य कर्ज माफी की घोषणा कर रहे हैं अथवा ऐसा करना चाहते हैं वे यह काम अपने बलबूते करें, लेकिन इतना ही पर्याप्त नहीं। वित्त मंत्री के इस दो टूक जवाब के बाद भी यह देखना मोदी सरकार की जिम्मेदारी है कि राज्य सरकारें एक तो राजनीतिक लाभ के फेर में कर्ज माफी की राह पर न जाने पाएं और दूसरे किसानों की समस्याओं का समाधान इस तरह खोजें कि वे वास्तव में आत्मनिर्भर बन सकें।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं  ]