हमारे कर्म ही हमें गति देते हैं। यदि हम अच्छे कर्म करते हैं तो सद्गति को प्राप्त होते हैं, गलत कर्म से दुर्गति मिलती है। कर्म छोटा या बड़ा नहीं होता, बल्कि कर्म ही मनुष्य को छोटा-बड़ा बनाते हैं। हम जैसे कर्म करते हैं, उसका वैसा ही फल हमें मिलता है। हमारे द्वारा किए गए कर्म ही हमारे पाप और पुण्य तय करते हैं। हमारे जीवन में कुछ अच्छा या बुरा होता है तो उनका सीधा संबंध हमारे कर्मों से होता है। कहा गया है कि जो जैसा बोता है वह वैसा ही काटता है। अगर हमने बबूल का पेड़ बोया है तो हम आम नहीं खा सकते। हमें सिर्फ कांटे ही मिलेंगे। एक डाकू या लुटेरा भी यही सोचता है कि वह अच्छे कर्म कर रहा है। लूटपाट करके ही सही, अपने परिवार का पेट तो भर रहा है, लेकिन जब साधुओं ने एक डाकू से पूछा कि क्या इस पाप में तेरा परिवार भी भागी बनेगा तो वह असमंजस में पड़ गया और भागा-भागा अपने परिवार के पास गया। उसने परिवार के सदस्यों से यही प्रश्न किया तो सभी ने एक स्वर में कह दिया कि तुम्हारे पापों में हम भागीदार नहीं हैं। तब जाकर उसकी आंखें खुलीं। हमारे कर्मों में इतनी ताकत होती है कि डाकू तक अपने कर्म सुधारें तो वे महर्षि बन सकते हैं।
दुनिया हमें हमारे काम से ही पहचानती है। तभी कहा गया है कि अपने कर्मों की गति सुधारो। कर्म सुधर गए तो जीवन सुधर गया। अच्छे कर्मों से मनुष्य जीते-जी तो याद किए ही जाते हैं, मृत्यु के बाद भी उनका नाम अमर हो जाता है। हमारे कर्म में हमेशा कोई न कोई उद्देश्य छिपा होना चाहिए। उद्देश्य के बगैर कर्म बहुत असरकारक नहीं होता। एक बुजुर्ग व्यक्ति ने यात्रा पर जाने से पहले अपनी बहुओं को कुछ बीज दिए और कहा कि इन्हें संभालकर रखना। जब मैं लौटूंगा तो इन्हें वापस ले लूंगा।
पहली बहू ने बीज बक्से में संभालकर रख दिए, लेकिन कुछ समय बाद ही वे सड़ गए। दूसरी बहू ने उन बीजों को बो दिया तो कुछ दिनों बाद वे अंकुरित हो गए और पौधे में तब्दील हो गए। बुजुर्ग जब यात्रा से लौटे और उन्होंने आंगन में नए पौधे देखे तो वे अपनी छोटी बहू से बहुत खुश हुए। हमारे कर्म हमारी सोच पर निर्भर करते हैं। यानी हम जैसा सोचते हैं, वैसे ही कर्म करते हैं और उसी के अनुरूप हमें फल भी मिलता है। अपने कर्मों के लिए व्यक्ति स्वयं ही जिम्मेदार होता है। गीता में भी कहा गया है कि फल से ज्यादा कर्म को ही महत्ता दी जानी चाहिए।
[ महायोगी पायलट बाबा ]