डॉ. भरत झुनझुनवाला

पिछले कई वर्षों से बैंकों द्वारा कर्ज दिए जाने में ढील जारी है। एक रपट के अनुसार दिसंबर 2014 से दिसंबर 2015 के बीच बैंकों द्वारा दिए गए कर्ज में 10.6 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी। इसकी तुलना में दिसंबर 2016 से दिसंबर 2017 के दौरान यह वृद्धि सिकुड़कर महज 5.1 प्रतिशत रह गई। दूसरी रपट के अनुसार बैंकों द्वारा दिए जाने वाले ऋण में पिछले छह वर्षों से लगातार संकुचन हो रहा है। ऐसे में स्पष्ट है कि यह समस्या नोटबंदी के कारण नहीं, बल्कि ढांचागत है। बैंकों द्वारा दिए जाने वाले कर्ज की मांग कम होने से यही नजर आता है कि मौजूदा दौर में सेवा क्षेत्र आर्थिक विकास का प्रमुख आधार बना हुआ है। वित्त मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार 2015 से 2017 के बीच सेवा क्षेत्र में 51 प्रतिशत की वृद्धि हुई है जबकि विनिर्माण क्षेत्र महज 31.8 प्रतिशत की वृद्धि दर्ज कर पाया।
आर्थिक विकास का इंजन अब सेवा क्षेत्र हो गया है। सेवा क्षेत्र मे पूंजी निवेश की जरूरत कम होती है। जैसे 2,000 रुपये प्रतिमाह किराये के कमरे में 10 कंप्यूटर लगाकर एक उद्यमी लाखों रुपये के सॉफ्टवेयर तैयार करा सकता है। इसी तरह एक कंप्यूटर पर बैठकर शिक्षक छात्रों को ऑनलाइन कोचिंग दे सकता है। पर्यटन, स्वास्थ्य पर्यटन और अंतरिक्ष यात्रा जैसी सेवाओं में तुलनात्मक रूप से अधिक पूंजी की दरकार होती है, फिर भी इनमें विनिर्माण की तुलना में कम ही पूंजी की जरूरत पड़ती है। सेवा क्षेत्र में ऋण की जरूरत मुख्य रूप से चालू खर्चों को पोषित करने के लिए होती है जिसे वर्किंग कैपिटल कहा जाता है। मान लीजिए किसी उद्यमी ने सॉफ्टवेयर बनाकर किसी कंपनी को आपूर्ति किया। कंपनी द्वारा भुगतान करने में समय लगने पर उद्यमी बैंक से उस बिल को डिस्काउंट करा सकता है। दूसरी ओर विनिर्माण में जमीन, इमारत, मशीनरी के साथ-साथ वर्किंग कैपिटल की भी जरूरत होती है। विनिर्माण क्षेत्र में आई ढील भी इस समय बैंकों द्वारा दिए जाने वाले कर्ज की मांग में कमी की एक बड़ी वजह है।
कर्ज की मांग में कमी का दूसरा कारण बड़े उद्योगों के लिए पूंजी के वैकल्पिक स्नोतों का उपलब्ध होना है। पिछले कुछ समय से कंपनियों द्वारा भारी मात्रा में बांड जारी कर बाजार से सीधे वित्त जुटाया जा रहा है। उद्यमी अपनी फैक्टरी को गिरवी रखकर बैंक से ऋण लेता है। इसी प्रकार फैक्टरी या परिसंपत्ति को गिरवी रखकर बांड जारी किए जाते हैं। कंपनी सीधे बाजार में बांड बेचती है और निवेशक उन्हें सीधे कंपनी से ही खरीद लेते हैं। बैंक की बिचौलिये की भूमिका के लिए कोई गुंजाइश नहीं रह जाती है। मिसाल के तौर पर सामान्य निवेशक बैंक में सावधि जमा यानी फिक्स्ड डिपाजिट कराता है जिस पर उसे सात प्रतिशत ब्याज मिलता है। उसी रकम को बैंक किसी उद्यमी को ऋण के रूप में देता है और 11 प्रतिशत का ब्याज वसूलता है। इसमें निवेशक और उद्यमी को चार प्रतिशत की चपत लगती है। इसलिए उद्यमी नौ से दस प्रतिशत के ब्याज पर बांड की पेशकश करते हैं। इससे निवेशक और उद्यमी दोनों को बचत होती है। एक रपट के अनुसार बीते चार वर्षों में पूंजी निवेश में बांड का हिस्सा 22 प्रतिशत से बढ़कर 33 प्रतिशत हो गया जबकि बैंकों का हिस्सा 45 प्रतिशत से घटकर 22 प्रतिशत रह गया। यह परिवर्तन बताता है कि अर्थव्यवस्था की बैंकों पर निर्भरता घटती जा रही है।
काले धन का निवेश भी बैंक ऋण की मांग में कमी का एक और कारण है। मान लीजिए किसी उद्यमी को नई फैक्टरी लगानी है और उसके पास काली कमाई मौजूद है। वह सीमेंट और लोहे जैसी चीजें इस काली कमाई से खरीदकर इमारत खड़ी कर सकता है। मशीनरी आपूर्ति के लिए भी आधी रकम नंबर दो की कमाई से देकर कम रकम का बिल बनवा सकता है। ऐसे में इमारत और मशीनरी के लिए उसे बैंक कर्ज की जरूरत नहीं रह जाती है। स्पष्ट है कि विनिर्माण क्षेत्र में आई शिथिलता, कंपनियों द्वारा भारी मात्रा में बांड जारी करना और काले धन की दस्तक बैंकों द्वारा दिए जाने वाले ऋण की मांग कम होने का मूल कारण है। विनिर्माण क्षेत्र में आई सुस्ती की भरपाई सेवा क्षेत्र से हो रही है और देश की आर्थिक वृद्धि दर सात प्रतिशत के सम्मानजनक स्तर पर बनी हुई है। विनिर्माण में आई यह शिथिलता भी शुभ संकेत है। विनिर्माण क्षेत्र की बड़ी कंपनियों से फिलहाल रोजगार के कम ही अवसर सृजित हो पा रहे हैं। इनमें स्वचालित मशीनों के उपयोग का चलन जोर पकड़ रहा है। इसके उलट सेवा क्षेत्र में श्रम की ज्यादा जरूरत पड़ती है जैसे होटल में कर्मियों की संख्या कम करने के लिए स्वचालित मशीनों का सहारा नहीं लिया जा सकता। लोहे एवं कोयले के हमारे भंडार सीमित ही हैं। विनिर्माण की खातिर हम कोयले के लिए अपने जंगलों और पनबिजली के लिए नदियों को अनायास ही नष्ट कर रहे हैं।
देश से होने वाले निर्यात में सेवाओं का हिस्सा बढ़ रहा है। सेवाओं के निर्यात से मिलने वाली रकम का उपयोग हम विनिर्मित माल के आयात के लिए कर रहे हैं। लिहाजा चीन में विनिर्माण में पूंजी निवेश अधिक हो रहा है। हम कम पूंजी निवेश से अधिक आय अर्जित कर रहे हैं। अर्थव्यवस्था की यह दिशा सुखद है। सेवा क्षेत्र में रोजगार के अवसर बन रहे हैं। ऐसे में बैंकों द्वारा दिए जाने वाले ऋण की मांग को हमें शुभ संकेत के तौर पर देखना चाहिए। हमारी स्थिति उस चरवाहे जैसी है जो शाम को वापसी के समय गाय को गलत रास्ते ले जाना चाहता है, परंतु गाय मानती नहीं और सही रास्ते घर की तरफ चलती है। हम बैंकों द्वारा दिए जाने वाले ऋण को बढ़ाना चाहते है, लेकिन अर्थव्यवस्था मानती ही नहीं और सेवा क्षेत्र के सही रास्ते को पकड़े हुए बढ़ती जा रही है। दिक्कत छोटे एवं मझोले उद्योगों की रह जाती है। इंडिया इन्फोलाइन न्यूज सर्विस की विज्ञप्ति के अनुसार पिछले साल बैंकों द्वारा बड़े उद्योगों को दिए जाने वाले कर्ज में 4.4 प्रतिशत की गिरावट दर्ज हुई। छोटे उद्यमों के लिए यही गिरावट 10.2 प्रतिशत और मझोले उद्योगों के लिए 4.4 प्रतिशत रही। इनमें बड़े उद्योगों के पास बांड जैसे पूंजी के दूसरे बड़े स्नोत भी उपलब्ध हैं।
विनिर्माण में सुस्ती का सबसे बड़ा नुकसान छोटे एवं मझोले उद्यमों को हो रहा है। सबसे ज्यादा रोजगार सृजन भी यही उद्योग करते हैं। यह जरूर भविष्य में खतरे की घंटी है। इसके चलते आने वाले दिनों में रोजगार का संकट गहरा सकता है। इस परिप्रेक्ष्य में भविष्य में सेवा क्षेत्र हमारे आर्थिक विकास का इंजन होगा। इसे बढ़ावा देने के उपाय किए जाने चाहिए। मसलन विदेश से इलाज के लिए आने वाले मरीजों और उनके तीमारदारों के अलावा पर्यटकों के साथ होने वाली बेईमानी पर लगाम लगनी चाहिए। इसके लिए अलग पुलिस जैसे इंतजाम किए जाने चाहिए। अगर विनिर्माण की हिचकोले खाती नैया किनारे नहीं लगती तब भी छोटे एवं मझोले उद्यमों पर आए संकट को दूर करने के उपाय किए जाने चाहिए। उन्हें संरक्षण देकर सस्ते आयातित माल और बड़े उद्योगों के खतरे से भी महफूज रखना होगा। जैसे आंधी-तूफान में भी समझदार गृहिणी चूल्हे की रक्षा करती है उसी तरह विनिर्माण में आई शिथिलता के बावजूद छोटे एवं मझोले उद्यमों की रक्षा करनी चाहिए।
[ आइआइएम बेंगलुरु में प्रोफेसर रहे लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री हैं ]