समस्त दुखों की जननी कुबुद्धि है और समस्त सुखों और शांति की जननी सद्बुद्धि है। कुबुद्धि हमें आनंद से वंचित करके नाना प्रकार के क्लेश, भय और शोक-संतापों में फंसा देती है। जब तक यह कुबुद्धि रहती है तब तक कितनी ही सुख सामग्री प्राप्त होने पर भी चैन नहीं मिलता। एक चिंता दूर नहीं हो पाती कि दूसरी सामने आ खड़ी होती है। इस विषम स्थिति से छुटकारा पाने के लिए सद्बुद्धि जरूरी है। इसके बिना शांति मिलना किसी भी प्रकार संभव नहीं। संसार में जितने भी दुख हैं, कुबुद्धि के कारण हैं। लड़ाई-झगड़ा, आलस्य, दरिद्रता, व्यसन, व्यभिचार, कुसंग आदि के पीछे मनुष्य की दुर्बुद्धि ही काम करती है। इन्हींकारणों से रोग, अभाव, चिंता, कलह आदि का भी प्रादुर्भाव होता है और नाना प्रकार की पीड़ाएं सहनी पड़ती हैं। कर्म का फल निश्चित है, खराब कर्म का फल खराब ही होता है। कुबुद्धि से बुरे विचार बनते हैं।
उपासना के फलस्वरूप मस्तिष्क में सद्विचार और हृदय में सद्भाव उत्पन्न हो जाते हैं, जिसके कारण मनुष्य का जीवनक्रम ही बदल जाता है। अंगीठी जलाकर रख देने से जिस प्रकार कमरे की सारी हवा गर्म हो जाती है और ंउसमें बैठे हुए सभी मनुष्य सर्दी से मुक्त हो जाते हैं। उसी प्रकार घर के थोड़े से व्यक्ति भी यदि सच्चे मन से सद्बुद्धि की शरण लेते हैं तो उन्हें स्वयं तो शांति मिलती ही है, साथ ही उनकी साधना का सूक्ष्म प्रभाव घर भर पर पड़ता है और चिंताजनक मनोविकारों का शमन होने व सुमति, एकता, प्रेम, अनुशासन और सद्भाव की परिवार में वृद्धि होती है। साधना निर्बल हो तो प्रगति धीरे-धीरे होती है, पर होती अवश्य है। सद्बुद्धि एक शक्ति है जो जीवनक्रम को बदलती है। उस परिवर्तन के साथ-साथ मनुष्य की परिस्थितियां भी बदलती हैं। सद्बुद्धि आत्म-निरीक्षण, आत्म-शुद्धि, आत्म-उन्नति और आत्म-साक्षात्कार करने की शक्ति उत्पन्न कर देती है। जैसे ही मनुष्य के अंत:करण में सद्बुद्धि का पदार्पण होता है वैसे ही वह अपनी कठिनाइयों का दोष दूसरों को देना छोड़कर आत्म-निरीक्षण आरंभ कर देता है। अपने अंदर जो त्रुटियां हैं, उन्हें तलाशता और हटाता है। ऐसी गतिविधि ग्रहण करता है जो अपने और दूसरों के कष्ट बढ़ाने में नहीं, बल्कि सुख सुविधा के उत्कर्ष में सहायक हो।
[ डॉ. सुरचना त्रिवेदी ]