सौभाग्य का सुख और दुर्भाग्य का दुख जीवन के दो पहलू हैं। जीवन इन्हीं दो पहियों से गति करता है। सौभाग्य का तात्पर्य है-विगत समय में किए गए सत्कर्मों का परिणाम और दुर्भाग्य का अर्थ है-बीते काल के सभी दुष्कर्मों की परिणति। सौभाग्य सूर्योदय की अरुणिम आभा के समान उदित होता है जो पक्षियों के कलरव के समान मंद-मधुर संगीत के सुरों से झंकृत होता है, परंतु दुर्भाग्य अस्ताचलगामी सूर्य के सदृश्य होता है जो देखते-देखते आसमान में विलीन होकर कालिमा की मोटी चादर ओढ़ा जाता है। सौभाग्य के आगमन में आहट होती है, परंतु दुर्भाग्य दबे पैर चला आता है। जब कुछ अच्छा घटने वाला होता है तो उसकी पूर्व सूचना मिल जाती है। मन में खुशी की तरंग फैल जाती है, एक नई ताजगी का अहसास होता है, हृदय पुलकित होने लगता है, भावनाओं में अनेक रंग घुलने लगते हैं। यह सब सौभाग्य अर्थात निकट भविष्य में कुछ शुभ होने का संकेत होता है, परंतु दुर्भाग्य का फंदा कब गले पड़ जाता है, पता ही नहीं चलता और जब पता चलता है तब गले में फंदा पड़ चुका होता है।
दुर्भाग्य का उदय और इसके बाद उसका परिदृश्य दोनों ही भीषण होते हैं। दुर्भाग्य पूर्व सूचना और पूर्व संकेत दिए बगैर आता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि विगत कर्मों की परिणति को भोगना जो है। अगर यह भी आहट देकर आए तो फिर व्यक्ति सजग-सतर्क नहीं हो सकेगा। सामान्य जन सौभाग्य के राग-रंग में इतने मदमस्त हो जाते हैं कि यह सब कब हो जाता है पता नहीं चलता। सौभाग्य के पल में लगता है कि ऐसा सुंदर और मनभावन पल कभी खत्म नहीं होगा। जीवन इसी तरह ही गुजर जाएगा, इसी बीच दुर्भाग्य की काली रेखाएं जब चुपके से बांधने लगती हैं तो लगता है कि एकाएक यह क्या हो गया। जीवन को आर-पार देखने वाले पारदर्शी महापुरुष कभी भी चैन की नींद नहीं सोते। उनके जीवन में सौभाग्य काल आता अवश्य है, परंतु वे इसमें मदमस्त नहीं होते। इस काल को वे गहन तपस्या और सेवा आदि उत्कृष्ट कार्यों में लगाते हैं, क्योंकि उन्हें पता रहता है कि सौभाग्य की आड़ में दुर्भाग्य झांकता रहता है और वह जीवन में दाखिल होकर कभी भी दखल दे सकता है। इसी प्रकार सामान्य व्यक्ति को भी दुर्भाग्य को जीत करके सौभाग्य प्राप्त कर लेने का प्रयास करना चाहिए।
[ डॉ. सुरचना त्रिवेदी ]