इस भौतिक जगत के विस्तार और विकास की आधारशिला है आश्रयशीलता। इस संसार का हर पहला प्राणी, हर दूसरे प्राणी पर आश्रित है। आश्रय के बगैर जीवन-विकास की शृंखला आगे बढ़ नहीं सकती है । ईश्वर ने इस संपूर्ण सृष्टि की रचना ऐसी गणितीय दृष्टि से की है कि आश्रय के बगैर कोई भी इस जीवन शृंखला में सफल नहीं हो सकता। पेड़-पौधों को प्रकृति का आश्रय मिलता है। वे पशु-पक्षियों को आश्रय देते हैं। उन्हें अन्न से प्राण व आश्रय मिलता है। अन्न किसान उगाता है। उसे जल और वायु ऊर्जा प्रदान करते हैं। यह प्राकृतिक विविधता पर निर्भर करता है और अंतत: यह सब कुछ ईश्वरीय सत्ता पर निर्भर करता है। पत्नी, पति पर और बच्चे माता-पिता पर और माता-पिता अपने पूर्वजों पर निर्भर करते हैं। इस सामंजस्यपूर्ण संसार में भी अकेले जीवन लक्ष्यों की प्राप्ति नहीं कर सकता। उसे किसी न किसी का आश्रय लेना ही पड़ता है। मनुष्य अथवा जीव का अज्ञान यही है कि जब वह किसी मामले में स्वयं को समर्थ या सक्षम पाता है तो वह स्वयं को ही कर्ता मान लेता है व ईश्वरीय सत्ता को नकारता चला जाता है, लेकिन दूसरी ओर जब वह किसी भी जीवनकार्य को करने के लिए स्वयं को असमर्थ पाता है तब वह ईश्वरीय सत्ता की परिक्रमा करने लगता है। मनुष्य ईश्वरीय आश्रय के बगैर कुछ भी पाने अथवा करने में सफल नहीं हो सकता है। यदि वह सक्षम होता तो वह सब कुछ पा लेता, जिसके बारे में वह सोचता है।
ईश्वर ने इस संसार की रचना गहन विचार-दर्शन से की है। बहुत संतुलन व न्यायप्रियता बरतते हुए सभी के लिए कुछ-कुछ दिया है। कुछ-कुछ से अधिक पाने का अवसर उसे केवल अतिरिक्त परिश्रम, निष्ठा, संघर्ष, साधना, तप, ईमानदारी, पवित्रता, निश्छलता व सकारात्मकता आदि सद्गुणों के प्रयोग के लिए दिया है। प्रभु से प्राप्त अनुकंपा से मनुष्य अपने व दूसरों के जीवन को सुंदरतम तो बना सकता है, लेकिन किसी के अहित व भाग्य परिवर्तन की शक्ति उसे ईश्वर ने नहीं दी है। जीवन में उन्नति की सही सीढ़ियां देवाश्रय से ही चढ़ी जा सकती हैं। मन की पवित्रता ईश्वर की स्नेहाकांक्षा पाने में सहायक हो सकती है। मन का मैल स्वयं व दूसरों के लिए अहित व असफलता के द्वार खोल सकता है। आइए देवाश्रय में गहन आस्था रखकर अपने कर्म व चिंतन की पवित्रता से हम इस मानव जीवन को सफल व स्मरणीय बनाएं।
[ डॉ. दिनेश चमोला ‘शैलेश’]