स्वाभाविक रूप से धरती पर मौजूद सभी प्राणियों पर प्रभु सदैव कृपा करते हैं। ऐसा इसलिए क्योंकि वे ‘सहज कृपाला दीनदयाला’ हैं। हालांकि प्रत्येक प्राणिमात्र पर वे समान रूप से कृपा करते हैं। दरअसल वे कृपानिधान कृपा की दिव्य अलौकिक मूर्ति हैं। उन कृपामय की अनवरत अक्षुण्ण रूप से प्रवाहित कृपाधारा में सभी प्राणी समान रूप से अवगाहन कर सकते हैं। इसमें देश, काल और पात्र की अपेक्षा नहीं की जाती। मनुष्य इस प्रकार की सर्वसुलभ कृपा की गंगा में गोते लगाकर अपने को पवित्र नहीं कर पाता। मोह और अविद्या के अंधकार से घिरा वह उसके समीप भी नहीं जाता। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि प्रशिक्षण अनुभव में आने वाली भगवत्कृपा ही प्राणिमात्र का परम अवलंब अथवा आधार है। भगवत्कृपा सुधामय प्राणी का प्राण है। कृपामय जीवन ही वास्तविक और सफल जीवन है। सवाल है कि प्रभु की मनुष्य मात्र पर बरसती कृपा का स्वरूप क्या है? उत्तर में सबसे पहले तो मनुष्य-शरीर की प्राप्ति ही उनकी कृपा का परिणाम है। भारत-भूमि में जन्म होना, स्वस्थ शरीर, शुद्ध धनोपार्जन, तीर्र्थों का भ्रमण, सत्संग और कीर्तन-भजन आदि उन्हीं की कृपा का प्रतिफल है। प्रभु की कृपा अनुकूल-प्रतिकूल समस्त परिस्थितियों में समान रूप से होती है। अनुकूल परिस्थितियों में वह है ही, किंतु प्रतिकूलता में छिपी भगवत्कृपा उस दवा के समान है जो सेवनकाल में अप्रिय प्रतीत होते हुए भी परिणाम में सुखद है। भगवत्प्राप्ति साधन-साध्य नहीं कृपासाध्य है। जैसे ढंके हुए पात्र में वर्षा का जल नहीं भर सकता, ठीक उसी प्रकार कृपा से लाभान्वित होने के लिए साधनों से यथासंभव मुख नहीं मोड़ना चाहिए।
कृपाभिलाषिता बनी रहना मानवमात्र के लिए अभीष्ट है। सवाल है कि कृपाभिलाषिता का स्वरूप क्या हो? इसका उत्तर है कि अपने अभिमान को पूर्णतया भूलकर सतत्-साधन स्वरूप स्वधर्म का पालन करते हुए प्रभु की कृपा की बाट जोहना। साधक यह विश्वास रखे कि प्रभु ही इसका कत्र्ता-धत्र्ता है, उनकी कृपा से ही हमारी वर्तमान स्थिति है और भविष्य में भी उनकी कृपा रहेगी। कृपा-साधक स्नेहमयी भगवत्कृपा दृष्टि प्राप्ति करने के लिए सदैव उत्कंठित, लालायित और पिपासाकुल बना रहता है। इससे उसे ईश्वर की असीम कृपा प्राप्त होती रहती है। उसमें सकारात्मकता का संचार होता है।
[ श्रीमती रमन त्रिपाठी ]