समाज में रहने के लिए स्थान की आवश्यकता पड़ती है। अपने उच्चकोटि के कार्र्यों के लिए जीवन समर्पित करना होता है। उत्कृष्टता प्रतिष्ठा दिलाती है, निकृष्टता अपयश प्रदान करती है। यथार्थ का ज्ञान रखने वाले जूझते लोगों से प्रश्न पर प्रश्न करने लगते हैं। सभी को संतुष्ट कर पाना दुष्कर रहता है। कभी-कभी प्रश्न उलझन बढ़ाता है। उलझन ही तनाव है। प्रश्नकर्ता समस्या बढ़ाते हैं। समाधान नहीं करते। अपने लक्ष्य पर दृष्टि लगाए लोग आत्म-प्रशंसा नहीं सुनना चाहते हैं। ज्ञान देने वाले के उच्च आचरण का प्रभाव पड़ता है। छल करने वाले कभी चरित्रवान पर विश्वास नहींकरते। उन्हें स्वयं की भांति घात करने वाले ही प्रिय लगते हैं। धन से सम्पन्न व्यक्ति सर्वगुण संपन्न भले न हों, पर अधिकांश लोग उनकी चापलूसी करके प्रसन्न होते हैं। किसी के जीवन-लक्ष्य पर प्रश्न करने के लिए सर्वप्रथम उससे श्रेष्ठ होना प्रथम शर्त है। ऊंचाई पर प्रतिष्ठित व्यक्तित्व की सफलता का रहस्य उसका गतिमान जीवन है। ऐसा व्यक्ति कल्पनाओं में नहींडूबता बल्कि कर्म करता है। किसी को दबाने में केवल निजी अहं का संबद्र्धन होता है, न कि सात्विक सकारात्मक सद्विचार का। जब बड़ा दोष स्वयं को गुण लगने लगता है तो विकास बाधित हो जाता है। गुण-दोष की तुला संसार की दृष्टि में है। योग्यता को नकार कर अयोग्यता की महत्ता पर संदेह स्वाभाविक है। योग्यता सत्य है तो अयोग्यता असत्य। स्थान पाने पर भी असत्य में सत्य के बगैर निखार नहीं आता।
चातक केवल ‘स्वातिजल’ पीता है, उसी की एक बूंद सीप में मोती बना देती है। समय बीतने के साथ परिश्रमी अपने मूल्यांकन पर दृष्टि रखता है। पहले से प्रतिक्षण वह कितना आगे बढ़ पाया, इसकी समीक्षा में उसे लगना पड़ता है। संसार उसकी ही चर्चा-मीमांसा करता है, जिसे वह अपनी सफलता की तुला पर तौल चुका होता है। अपने सार्थक जीवन के लिए अपनी केवल दो आंखें अकुलाती हैं। दूसरों की आंखों में संवेदना न होने के कारण किसी की खिल्ली उड़ाने में तथाकथित समर्थ लोग नहीं हिचकिचाते। किसी को गिराने में लंगड़ी मारने के लिए कभी-कभी होड़ लग जाती है। इस तरह की नकारात्मक प्रवृत्तियों वाले लोग लक्ष्यों को हासिल नहींकर सकते। लक्ष्यों को सकारात्मक प्रवृत्तियों के माध्यम से ही प्राप्त किया जा सकता है।
[ डॉ. हरि प्रसाद दुबे ]