भूपेंद्र यादव

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने पिछले मन की बात कार्यक्रम में युवाओं से जुड़े विभिन्न पहलुओं पर कई गंभीर बातें कीं। उन्होंने कहा कि ‘कभी-कभी डर लगता है कि कहीं हमारी युवा पीढ़ी रोबोट तो नहीं हो रही’, ‘उनके भीतर जो मानवीय तत्व हैं वे कहीं कुंठित तो नहीं हो रहे’, ‘हम मानवीय गुणों से दूर तो नहीं हो रहे।’ इससे बचने के लिए उन्होंने युवाओं को तकनीक से दूर होकर कुछ समय समाज और अपनों के साथ गुजारने का सुझाव दिया। यदि युवा उनके दिशा-निर्देशों को अमल में लाए हैं तो निश्चित रूप वे नकारात्मक प्रभावों से दूर रहकर स्वयं अपने लिए, अपने अपनों के लिए और देश के लिए कुछ ऐसा कर सकते हैं जो उन्हें सार्थक और महत्वपूर्ण होने का अहसास कराएगा। यह सच है कि युवाओं की समस्या एक सफल भविष्य की प्राप्ति से जुड़ी है, परंतु इसे हासिल करने के लिए वे जिस प्रकार अंधी प्रतिस्पद्र्धा की दौड़ में शामिल हो गए हैं वह चिंतनीय है। यदि हम अपने घर में, आस-पास और सफर में ही देखते हैं तो पाते हैं कि अधिकांश युवा एक आभासी दुनिया में खोए रहते हैं। दरअसल तकनीक के प्रसार के कारण सूचनाओं का भंडार उनके हाथ लग गया है। यदि वे इस ज्ञान को स्वयं अपने पास तक सीमित रखने के बजाय दूसरों के साथ बांटें तो ज्ञानवान होने का यह सफर आनंददायक हो जाएगा। मशीनों का उपयोग हमारी सुविधाओं के लिए एवं पीड़ा दूर करने के लिए हुआ है, परंतु इन पर अत्यधिक निर्भरता हमारी सृजन की क्षमता और स्वतंत्रता को समाप्त कर रही है। लगातार इन्हीं से जुड़े रहने से न सिर्फ शारीरिक समस्याएं पैदा हो रही हैं, बल्कि युवा वर्ग समाज से और अपनों से भी दूर हो रहा है और अपना महत्वपूर्ण समय नष्ट कर रहा है।
प्रधानमंत्री ने मन की बात में इस पर चिंता व्यक्त करते हुए इसके दुष्परिणाम की ओर संकेत किया कि ‘एक ही घर में छह लोग एक ही कमरे में बैठे हैं, लेकिन दूरियां इतनी है कि हम कल्पना भी नहीं कर सकते।’ मनोवैज्ञानिक दृष्टि से यह आज समाज की गंभीर समस्या है। तकनीक के अंध उत्साह में आज हम उन रिश्तों से दूर हो रहे हैं जो हमें अच्छी-बुरी परिस्थितियों में भावनात्मक आधार देते हैं। देखा जाए तो जीवन संघर्ष भी है, सृजन भी है। संघर्ष और सृजन दोनों में आनंद है, पर इस आनंद का अनुभव सुरुचिपूर्ण समाज में होता है। हम अकेले ज्ञानवान, सुरुचिपूर्ण या सुसंस्कृत हो जाएं तो भी जीवन का आनंद महसूस नहीं कर सकते, क्योंकि आनंद भाव से जीने के लिए समाज चाहिए। समाज सामूहिकता का भाव है, सिर्फ लोगों का समूह नहीं है। आज इसे जानने, समझने की जरूरत है। प्रधानमंत्री इसकेलिए कुछ सुझाव देते हैं जिनका यदि पालन किया जाए तो न सिर्फ हमें दूसरों के अनुभवों को जानने का मौका मिलेगा, बल्कि हम स्वयं की विशिष्टता का भी अनुभव कर सकेंगे। जैसे-बिना रिजर्वेशन द्वितीय श्रेणी में सफर करना, अनजान बच्चों के साथ खेलना, आप जो जानते हैं उससे किसी अनजान व्यक्ति को परिचित कराना, किसी नई भाषा, नृत्य या वाद्य यंत्र को सीखना। प्रधानमंत्री द्वारा लाल बत्ती को समाप्त करने के लिए उठाया गया कदम भी इसी कड़ी का हिस्सा है, क्योंकि यह समाज के समरस बनने में अवरोध है।
वास्तव में विशिष्टता हमारे बाहर नहीं है, बल्कि हम सभी में निहित है। हमें बस इसको पहचानना है। सत्ता, भय, शक्ति का दुरुपयोग, समाज में ऊंच-नीच का भाव पैदा करना, यह लाल बत्ती की संस्कृति रही है। इसे मन से निकालना जरूरी है, क्योंकि इससे भी हमारे युवा भ्रमित हो रहे हैं। समाज में रुतबा या लाल बत्ती हासिल करना आज भी अधिकांश बच्चों और अभिभावकों के मन में है। इस अंध लक्ष्य के लिए ही युवाओं में अधिक से अधिक अंक लाने की होड़ मची है और परस्पर द्वेष एवं ईष्र्या का भाव पैदा हो रहा है। साथ ही विद्यालय एवं महाविद्यालय काल में अधिकांश प्रतिभाशाली युवा अपने बहुआयामी व्यक्तित्व को संवारने के बजाय पैसा कमाने की मशीन बन रहे हैं। अपनी बहुत सी सकारात्मक इच्छाओं को दबाने से वे सब कुछ होते हुए भी निराशा महसूस कर रहे हैं। यह अवसाद नासूर बन जाए इससे पहले ही हमें सचेत हो जाना चाहिए और सकारात्मक प्रयोगों से जुड़कर युवाओं में सामूहिकता का भाव बढ़ाना चाहिए।
अंबेडकर का मानना था कि ‘एक महान व्यक्ति एक प्रतिष्ठित व्यक्ति से अलग है, क्योंकि महान व्यक्ति समाज का सेवक बनने के लिए तैयार रहता है।’ हालांकि यह सच्चाई है कि आज अधिकांश युवाओं का लक्ष्य व्यक्तिगत सफलता, सुरक्षा और कामयाबी हासिल करना है। यह गलत भी नहीं है, लेकिन इसके साथ-साथ हमें इस बात का भी ख्याल रखने की आवश्यकता है कि युवा अति सुविधापूर्ण जीवन को हासिल करने के चक्कर अपने सामाजिक सरोकारों, कर्तव्यों से विमुख न होने लगें। उनकी योग्यता और बुद्धिमता का उपयोग सार्वजनिक हितों के अनुरूप हो। वे बुद्धिमान होने के साथ-साथ संयमी और साहसी भी बनें, क्योंकि इसके अभाव में ही कई बार युवाओं से जुड़ी नकारात्मक खबरें पढ़ने-सुनने को मिलती हैं। इसमें दो राय नहीं कि देश के अधिकांश युवा अपने लिए, समाज के लिए कुछ अच्छा करना चाहते हैं, लेकिन इसे हासिल करने के लिए उन्हें कौन सा रास्ता अपनाना चाहिए, इसके उचित-अनुचित का बोध कई बार उन्हें नहीं हो पाता है। इस समस्या का निवारण करने के लिए ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘सकारात्मक प्रयोगों’ के प्रति युवाओं को जुड़ने की बात कही है।
जाहिर है, अगर मन की बात के माध्यम से प्रधानमंत्री ने यह विषय उठाया है तो इसके मायने बेहद खास हैं। यह हमारे भावी भारत की मजबूत आधारशिलाओं के रूप में युवाओं के भविष्य से जुड़ा मसला है, जिस पर अभिभावकों, समाज के प्रबुद्ध लोगों सहित शिक्षकों को भी विचार करने की जरूरत है, क्योंकि वर्तमान में भारत की पहचान एक युवा देश के रूप में है। यह जोश, जुनून से भरपूर होकर स्वप्नों की उड़ान भरने वाला वर्ग है। स्वतंत्रता आंदोलन रहा हो अथवा स्वतंत्रता के पश्चात हुए जनांदोलन युवाओं की सक्रियता से ही सफल हो पाए हैं। ‘एक भारत श्रेष्ठ भारत’ के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सपने के केंद्र में युवा ही हैं। ऐसे में युवा मन की समस्या को समझना, उसे सकारात्मक माहौल उपलब्ध कराना और आशावान बनाना उस पीढ़ी के लिए आवश्यक है जो सफल-असफल अनुभवों से गुजरी है और इस तरुण भारत के माध्यम से एक सुंदर समरस समाज का सपना देख रही है।
[ लेखक राज्यसभा के सदस्य हैं ]