सूर्यकुमार पांडेय

इन दिनों हमारे शहर में द्विवेदीजी भारी मांग में हैं। ऐसा खुद उनका कहना है और हमारे पास भी इस अर्धसत्य को आंशिक रूप से सही मान लेने के सिवा कोई और उपाय भी नहीं है। चलिए तो मान ही लेते हैं। द्विवेदीजी जितने साधिकार से महात्मा गांधी के स्वराज और सत्याग्रह पर प्रवचन करने में सक्षम हैं, उतनी ही प्रखरता से पंडित दीनदयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद पर भी बोल सकते हैं। उन्हें चार्वाक से ओशो तक पर व्याख्यान देने में महारत हासिल है। शुक्र है कि ट्रंप और किम अभी उनके रडार से बाहर हैं। किसी भी ऐतिहासिक घटना की या किसी महापुरुष की स्वर्ण जयंती का आयोजन हो, शताब्दी समारोह हो या फिर रजत जयंती का उत्सव ही क्यों न हो, वहां पर द्विवेदीजी की उपस्थिति अपरिहार्य ही नहीं अनिवार्य मिलती है। द्विवेदीजी का भाषण हुए बिना किसी समारोह की इतिश्री असंभव है। अत्यधिक उपयोग के चलते उनके गले से खरखराहट की ध्वनि आने लगी है। इस खर-खर ध्वनि को वह प्रखर वक्ता होने का प्रमाण मानते हैं। उनकी धाराप्रवाह वाणी को भाषण की निर्धारित समय-सीमा की चट्टानें तक रोकने में असमर्थ हैं।
द्विवेदीजी का मानना है कि उनके विचार समाज के अंतिम व्यक्ति तक पहुंचने चाहिए। इसीलिए वह सभागार में एक व्यक्ति के उपस्थित रहने तक अपना उद्बोधन जारी रखते हैं। बस एक बार उनके अपने हाथ में माइक आ भर जाए, फिर तो वह अपने आपको उस घटना या महापुरुष पर अपनी बात साधिकार रखने वाले उद्भट विद्वानों की कोटि में गिनाकर ही मंच से नीचे उतरते हैं। इसे तो द्विवेदीजी की कृपा ही समझिए जो वह उस इतिहास की घटना का प्रत्यक्षदर्शी होने से स्वयं को एक-दो अंगुल ही सही, दूर रख लेते हैं। वह जिस महापुरुष पर बोल रहे होते हैं, उसे अपना संबंधी बताते-बताते अपनी वाणी के अश्व को लगाम दे लेते हैं। द्विवेदीजी के पास संजय-दृष्टि है। वह प्रत्येक महाभारत के प्रत्यक्ष और सजीव प्रसारक हैं। जब वह समारोह में व्यस्त नहीं होते तब भी अपना कार्य जारी रखते हैं। अपने मोहल्ले की हर खबर को इधर से उधर पहुंचाना उनका वर्षों पुराना अव्यावसायिक धंधा है।
अभी हाल ही में मुझे द्विवेदीजी को सुनने का सुलभ अवसर प्राप्त हुआ। वह चंपारण सत्याग्रह के शताब्दी वर्ष के उपलक्ष्य में आयोजित समारोह में बोल रहे थे। उन्होंने बताया कि राममोहन शुक्ल नाम के एक किसान थे जो गांधीजी को चंपारण ले गए थे। मैंने जब व्याख्यानोपरांत उन्हें टोका कि उन सज्जन का नाम राज कुमार शुक्ल था। इस पर द्विवेदीजी हंसते हुए बोले-हां नाम तो यही था जो आप बता रहे हैं, मगर प्यार से लोग उन्हें राममोहन भी कह कर बुलाया करते थे। सत्य ही कहा गया है अज्ञानी से चतुर कोई नहीं होता है। शहर में द्विवेदीजी जैसे विद्वानों की मांग के अनुपात में नितांत कमी है। द्विवेदीजी इस बात को बख़ूबी जानते हैं और समझते भी हैं। इसीलिए वह हर छोटी या बड़ी गोष्ठी या सभा में अपनी उपस्थिति के लिए तत्पर भी रहा करते हैं और इसके लिए प्रयासरत होना तो खैर उनके गुणसूत्र में है। वह इस बात का भी बुरा नहीं मानते हैं कि सभागार में उन्हें अग्रिम पंक्ति में क्यों नहीं बिठाया जाता? द्विवेदीजी के मतानुसार अग्रिम पंक्ति में अपना स्थान बनाने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को स्वप्रयास के नैसर्गिक सिद्धांत पर विश्वास रखना चाहिए। इस नाते वह कार्यक्रम स्थल पर एक घंटा पहले ही पहुंचकर अग्रिम पंक्ति में ख़ुद ही धंस लेते हैं। एक समारोह में जब उद्घोषक ने गलती से उन्हें द्विवेदीजी की जगह पर चतुर्वेदी कहकर संबोधित कर दिया था तो भी उन्होंने इसका बुरा नहीं माना था। उलटे उद्घोषक की प्रशंसा में बीस मिनट बर्बाद किए। जिसका लब्बोलुआब यह था कि वे न जाने कब से इस उच्चीकृत उपाधि को प्राप्त करना चाहते थे। वह उस दिन इतना प्रसन्न थे कि कदाचित ही कोई कर्मचारी अप्रेजल के बाद डबल इन्क्रीमेंट पाकर होता होगा। हमारे शहर में कहीं भी कार्यक्रम हो रहा हो आयोजकों में इतनी कूवत नहीं कि वे द्विवेदीजी की उपेक्षा कर सकें। अगर आयोजक उनसे संपर्क नहीं करते तो वह स्वयं आयोजकों से संपर्क स्थापित करते हैं। पहले आयोजकों के फोन और मोबाइल नंबर तलाशते हैं। इस तलाश में उन्हें चाहे जिस हद से गुजरना पड़े वह गुजरने से गुरेज नहीं करते और कभी-कभी तो आयोजकों के घर तक चले जाते हैं। द्विवेदीजी का एक स्वनिर्मित सिद्धांत है जिसकी व्याख्या के बहाने वह अपनी यादों की पुरानी पोटली में से एक किस्सा अक्सर कुछ इस प्रकार सुनाया करते हैं, ‘अब वह समय नहीं रहा जब इस शहर में कद्रदान रहा करते थे। वे सवेरे से ही मेरे दरवाजे पर आ धमकते। एक मुझसे अपने आयोजन में चलने की मिन्नतें करता तो दूसरा अपने समारोह में ले जाने के लिए मेरे पांव पकड़ लेता।’
अपनी लोकप्रियता के शेयर मार्केट में अचानक आई गिरावट पर द्विवेदीजी रोनी सी सूरत बना लेते हैं। श्रोता भी उनकी दयनीय दशा पर पहले हंसता है फिर अपना मुंह लटका लेता है। तब द्विवेदीजी अपने उस स्वनिर्मित सिद्धांत का ख़ुलासा करते हैं। भाई अपने ही मरे स्वर्ग मिलता है। इसलिए मैंने भी स्वावलंबन की नीति पर चलना आरंभ कर दिया है। यह कलियुग है इसलिए यहां अब कुएं को प्यासों के पास जाना पड़ता है। तो मैं भी जब तक इस धरा-धाम पर हूं प्यासों को ज्ञान की गंगा में डुबकियां लगवाता ही रहूंगा। हमें पता है द्विवेदीजी की ज्ञान-गंगा में कितना प्रदूषण है, मगर क्या करें और विद्वत नदियां ही कौन-सा प्रदूषणमुक्त हैं! किसी न किसी घाट का पानी तो पीना ही है। अर्धज्ञान की बलिवेदी पर पूर्ण सत्य सदा से कटता आया है।

[ हास्य-व्यंग्य ]