कृष्णमूर्ति सुब्रमण्यन
करण जौहर, सैफ अली खान और वरुण धवन ने हाल में मजाकिया तौर पर भाई-भतीजावाद का जोर से जयकारा लगाया। जैसे ही उन्होंने इसे कमाल की चीज करार दिया वैसे ही सोशल मीडिया पर इसे लेकर हलचल मच गई। उनके निशाने पर कंगना रनोट थीं जिन्होंने फिल्म जगत में भाई-भतीजावाद का सवाल उठाया था। हाल में कंगना रनोट ने एक लेख के जरिये इन तीनों को करारा जवाब दिया। क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि सुनील गावस्कर, मोहिंदर अमरनाथ और संजय मांजरेकर जैसे खिलाड़ी क्रिकेट से जुड़े कार्यक्रम के मंच से भाई-भतीजावाद का ऐसा ही गुणगान करें? सुनील गावस्कर हमेशा अपने मामा माधव मंत्री के शुक्रगुजार रहे हैं। गावस्कर ने सार्वजनिक रूप से कभी यह स्वीकार करने से गुरेज नहीं किया कि उनके करियर को आकार देने में माधव मंत्री की भूमिका बेहद अहम रही। मंत्री खुद भारत के लिए टेस्ट क्रिकेट खेल चुके थे।
मोहिंदर अमरनाथ और संजय मांजरेकर भी दिग्गज क्रिकेटरों की संतान हैं। मोहिंदर के पिता लाला अमरनाथ और संजय के पिता विजय मांजरेकर का नाम भारतीय क्रिकेट की किंवदंतियों में शुमार किया जाता है, लेकिन यदि यह कहा जाए कि उन्हें भाई-भतीजावाद के चलते ही ख्याति मिली तो वे कुपित हो जाएंगे। आखिर ऐसा क्यों है कि कुछ पेशों में केवल और केवल आपकी प्रतिभा ही बड़ी सफलता दिला सकती है और वहीं कुछ पेशे ऐसे भी हैं जहां पारिवारिक जड़ें निर्णायक बन जाती हैं? जरूरी नहीं पारिवारिक जड़ों के कारण किसी को ऐतिहासिक सफलता मिल ही जाए, लेकिन स्थायित्व भरे करियर के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ता। आखिरकार कपूर, बच्चन और धवन अपने उपनाम के दम पर अपनी अगली पीढ़ियों के लिए माकूल करियर की राह तैयार करने में सफल रहे हैं। इसी तरह केनेडी, बुश, गांधी, यादव, सिंधिया, भुट्टो और शरीफ परिवारों ने भी अपनी अगली पीढ़ी का राजनीतिक कॅरियर आसान बनाया है। इसकी तुलना में अमरनाथ, गावस्कर और मांजरेकर परिवार के नुमाइंदे विशुद्ध प्रतिभा के आधार पर ही अपना मुकाम हासिल कर पाए। यहां सुनील गावस्कर के बेटे रोहन की मिसाल समीचीन होगी। रोहन कभी टेस्ट मैच नहीं खेल पाए। एकदिवसीय मैचों में भी अपने औसत प्रदर्शन के बाद भी टीम में जगह नहीं कायम रख सके। अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट के आकाश में चमक बिखेरने के लिए महज गावस्कर नाम ही उनके लिए काफी नहीं था।
कुछ पेशों में वंशागत उत्तराधिकार और भाई-भतीजावाद से ही काम बन जाता है और दूसरे तमाम पेशों में यह किसी काम का नहीं रहता। राजनीति और सिनेमा की तुलना में क्रिकेट में भाई-भतीजावाद कम है। हालांकि जौहर और गांधी जैसे नामचीन परिवारों के नुमाइंदे यही दलील देंगे कि फिल्म निर्माण या राजनीति जैसे खास पेशों के लिए जरूरी बातें उनके जीन में मौजूद होती हैं और उनकी सफलता से वंशानुगत संबंध का कोई लेना-देना नहीं। इस परिकल्पना को परखने के लिए हमें उस माहौल में वंशवादी बनाम गैर-वंशवादियों की सफलता का आकलन करना होगा जिसमें पारिवारिक संबंधों का कोई फायदा नहीं मिलता। आखिर कितने जौहर, कपूर और बच्चन ने हॉलीवुड में भी कोशिश करने की हिम्मत दिखाई। किसी ने भी नहीं। इनके उलट गैर-फिल्मी पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखने वाली प्रियंका चोपड़ा और इरफान खान ने हॉलीवुड में भी अपना झंडा गाड़ने में कामयाबी हासिल की। इसी तरह कितने वंशवादी नेता अपने माता-पिता के दायरे से बाहर निकलकर सफलता की छटा बिखेरने में कामयाब हुए? गांधी परिवार के सदस्य भी अमेठी या रायबरेली से बाहर किसी अन्य सीट से चुनाव लड़ने की जहमत नहीं करते। सिंधिया परिवार के किसी सदस्य ने मध्य प्रदेश से बाहर चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं दिखाई। कमोबेश यही कहानी उत्तर प्रदेश और बिहार के यादव परिवारों की भी नजर आती है जहां अगली पीढ़ी ने अपने पिता के प्रभाव क्षेत्र से आगे कदम बढ़ाने का साहस नहीं दिखाया। इनकी तुलना में भले ही कोई शाहरुख खान, अनुष्का शर्मा, रणवीर सिंह, नरेंद्र मोदी या अरविंद केजरीवाल जैसी शख्सियतों को पसंद-नापसंद करे, लेकिन इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि उन्होंने अपने दम पर कामयाबी की नई इबारत लिखी।
अमूमन यह देखा गया है कि किसी सफल परिवार की अगली पीढ़ी अपने परिवार के प्रभाव क्षेत्र से बाहर कदम बढ़ाने में हिचकती है। इससे यही जाहिर होता है कि उनकी नई पीढ़ी अपने परिवार की सफलता वाली छत्रछाया में ही सहज महसूस करती है। वंशानुगत संबंध और उससे उपजा भाई-भतीजावाद खास तौर से उन पेशों में बेहद मायने रखता है जहां नतीजे तय करने का जिम्मा विशाल जनसमूह के हाथ में होता है। फिल्में और चुनाव इस कसौटी पर एकदम सटीक बैठते हैं। यह बात भी सही है कि किसी की क्षमता को आंकने की जनता के पास उचित विशेषज्ञता भी हो, ऐसा जरूरी नहीं। ऐसे में कोई खास नाम या पारिवारिक जुड़ाव जनता के बीच किसी की क्षमता को लेकर धारणा पैदा कर सकता है। हालांकि इसे प्रभावी रूप से नहीं परखा जा सकता। जमैका में सबीना पार्क की पिच पर मैल्कम मार्शल की कहर बरपाती गेंदों का सामना करने के लिए गावस्कर को अपने उपनाम से कोई मदद नहीं मिली। वहां उनकी प्रतिभा और क्षमता ने ही उनका बेड़ा पार लगाया।
वंशवाद और भाई-भतीजावाद को पनपने के लिए सबसे उर्वर जमीन वहीं मिलती है जहां वित्तीय संसाधन मायने रखते हों। जब पारिवारिक प्रवृत्ति का वित्तीय संसाधनों से मेल होता है तो नुकसान की भरपाई करने के साथ नाकामी पर आसानी से पर्दा डाल दिया जाता है। कल्पना कीजिए कि अगर शाह रुख खान की शुरुआती फिल्में नाकाम हो जातीं तो उनका क्या हश्र होता? इसकी तुलना में अगर सैफ अली खान को देखें तो शुरुआती स्तर पर तमाम नाकामी के बावजूद उन्हें लगातार मौके मिलते गए। तमाम कोशिश के बाद ‘दिल चाहता है’ जैसी फिल्म से जाकर वह दर्शकों के दिल में अपने लिए कुछ जगह बना पाए। इसका मर्म यही है कि जिन पेशों में जनता ही जनार्दन होती है वहां एक अदद कामयाबी अहम होती है। इसके बाद कुछ नाकामियों का दंश बर्दाश्त किया जा सकता है।
कुल मिलाकर धनबल और संपर्कों की आड़ औसत दर्जे के वंशवादियों को भी सफलता का स्वाद चखाने में मददगार होती है। इसका खामियाजा प्रतिभाशाली लोगों को ही भुगतना होता है। चाहे फिल्मों की बात हो या उद्योग जगत या राजनीति की, सभी जगह कमोबेश यही कहानी है। चूंकि एक संभावनाशील संपन्न लोकतंत्र बिना किसी पूर्वाग्र्रह के सभी नागरिकों के लिए समान अवसर सुनिश्चित करने की बात करता है, ऐसे में अब जब हम अपनी आजादी की 75वीं वर्षगांठ मनाने की ओर कदम बढ़ा रहे हैं तब देश के प्रत्येक क्षेत्र में वंशवाद का प्रभाव निश्चित रूप से घटाना चाहिए।
[ लेखक हैदराबाद स्थित इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस में एसोसिएट प्रोफेसर हैं ]