मितव्ययिता भारतीय संस्कृति का प्रमुख आदर्श है जो केवल बचत का ही दृष्टिकोण नहीं देता है, बल्कि जीवन में सादगी, संयम, अनावश्यक खर्चों पर नियंत्रण, त्याग और आडंबररहित जीवन को प्राथमिकता देता है। आज की उपभोक्तावादी एवं सुविधावादी जीवन-धारा में उसके प्रति किसी का भी लक्ष्य प्रतीत नहीं होता। यदि मितव्ययिता का संस्कार लोकजीवन में आत्मसात हो जाए तो समाज और राष्ट्र में व्याप्त प्रदर्शन, दिखावा एवं फिजूलखर्ची पर नियंत्रण लग सकता है। एक सामाजिक और राष्ट्रीय संपदा का यह अर्थहीन अतिरिक्त भोग और दूसरी तरफ अनेक व्यक्ति जीवन की मौलिक और अनिवार्य अपेक्षाओं की पूर्ति के लिए भी तरसते रहते हैं। यह आर्थिक विषमता निश्चित ही सामाजिक विषमता को जन्म देती है। जहां विषमता है, वहां निश्चित रूप से हिंसा है। इस हिंसा का उद्गम है,अतिरिक्त संग्रह, असीम भोग, अनुचित वैभव प्रदर्शन, साधनों का दुरुपयोग। सत्ता का दुरुपयोग भी विलासितापूर्ण जीवन को जन्म देता है।
किसके पास कितना धन है, यह महत्वपूर्ण नहीं है। महत्व इस बात का है कि अर्थ के प्रति व्यक्ति का दृष्टिकोण क्या है तथा उसका उपयोग किस दिशा में हो रहा है। प्रदर्शन और विलासिता में होने वाला अर्थ का अपव्यय समाज को गुमराह अंधेरों की ओर धकेलता है। इस तरह की आर्थिक सोच एवं संरचना से क्रूरता बढ़ती है, भ्रष्टाचार की समस्या खड़ी होती है, हिंसा को बल मिलता है और मानवीय संवेदनाएं सिकुड़ जाती हैं। अर्थ केंद्रित विश्वव्यवस्था समग्र मनुष्य-जाति के लिए भयावह बन रही है। मितव्ययिता का महत्व शासन की दृष्टि से ही नहीं, व्यक्ति एवं समाज की दृष्टि से भी है। हमारे यहां प्राचीन समाज में मितव्ययिता के महत्व को स्वीकार किया जाता था। किसी सामान की बर्बादी नहीं की जाती थी और उसे उपयुक्त जगह पहुंचा दिया जाता था। भोग विलास में पैसे नहीं खर्च किए जाते थे, पर दान-पुण्य किए जाने का प्रचलन था। गरीबों को भोजन, बेघरों को आश्रय, जरूरतमंदों की सहायता करना जैसे काम लोग किया करते थे, पर आज का युग स्वार्थ से भरा है। जब तक जन-जन को मितव्ययी जीवनशैली का व्यवस्थित प्रशिक्षण नहीं दिया जाएगा तब तक इस प्रकार की त्रुटियों का सुधार नहीं हो सकेगा।
[ ललित गर्ग ]