संजय गुप्त

सीरिया के ताजा हालात दुनिया को और अधिक चिंता में डालने वाले हैं। अमेरिका ने सीरिया के खान शेखहुन में विद्रोहियों के प्रभाव वाले इलाके में रासायनिक हमले में करीब सौ लोगों की मौत के बाद वहां पर 59 टॉम हॉक क्रूज मिसाइलें दागीं। यह रूस को नागवार गुजरा और इसी के साथ सीरिया संकट के हल के मामले में अमेरिका और रूस में सहमति की संभावनाएं क्षीण हो गईं। रूस सीरिया के राष्ट्रपति बशर अल असद के पीछे डटकर खड़ा है जबकि अमेरिका असद को समस्या की जड़ मानता है। सीरिया पर अमेरिका एवं रूस के बीच तनातनी बढ़ने के आसार ने विश्व शांति के लिए एक नया खतरा पैदा कर दिया है। यह परिदृश्य पिछले तीन सालों में दुनिया भर में अपनी छाप छोड़ने वाले भारत की भी चिंता बढ़ाने वाला है। फिलहाल भारत सीरिया के संकट से सीधे-सीधे प्रभावित नहीं है, लेकिन आज यदि भारत सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य होता तो वह इस संकट को हल करने में मददगार हो सकता था। सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता की भारत की दावेदारी पर लगभग सभी प्रमुख देश सहमत हैं, लेकिन चीन का रवैया रोड़ा अटकाने वाला है। प्रधानमंत्री मोदी ने सत्ता संभालने के बाद अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में सक्रियता दिखाने के क्रम में चीन की ओर भी दोस्ती का हाथ बढ़ाया था, लेकिन वह अपने वर्चस्ववादी रवैये के कारण किसी अन्य देश के हितों का ध्यान रखने के लिए तैयार नहीं। चीन इस कोशिश में रहता है कि भारत को अंतरराष्ट्रीय समुदाय में उससे ज्यादा सम्मान न मिल सके। चीन का रवैया दक्षिण चीन सागर क्षेत्र समेत दक्षिण एशिया और कोरियाई प्रायद्वीप में अशांति का कारण बन रहा है। उसके अड़ियल रुख के कारण दक्षिण और पूर्वी एशिया के कई देश भारत की ओर देख रहे हैं। मोदी इस चुनौती से परिचित हैं और इसीलिए उन्होंने अपनी कूटनीति को इस तरह धार दी है कि भारत के हितों पर कोई आंच न आने पाए। इसी के तहत वह दक्षिणी, पूर्वी और मध्य एशिया के देशों के साथ निकटता कायम कर रहे हैं।
यह तय है कि बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख हसीना की मौजूदा भारत यात्रा कई देशों का ध्यान खींचेगी। भारत और बांग्लादेश के बीच बढ़ती मैत्री दक्षिण एशिया में शांति और स्थिरता का आधार बन रही है। शेख हसीना के स्वागत के लिए प्रधानमंत्री मोदी जिस तरह प्रोटोकाल तोड़कर हवाई अड्डे पहुंचे उससे पता चलता है कि भारत बांग्लादेश के साथ अपने संबंधों को अत्यंत महत्वपूर्ण समझ रहा है। मोदी की कूटनीति का एक महत्वपूर्ण आयाम भारत की लुक ईस्ट नीति है। इसके तहत भारत बांग्लादेश के साथ-साथ म्यांमार, थाईलैंड, इंडोनेशिया, वियतनाम आदि देशों के साथ निकटता बढ़ा रहा है। यह नीति एशिया में चीन के प्रभुत्व को कम करने में महत्वपूर्ण है। चीन दक्षिण चीन सागर में बेहद आक्रामक तरीके से अन्य देशों के समुद्री क्षेत्र पर जिस तरह अपना अधिकार जमाने में लगा हुआ है उससे फिलीपींस, जापान आदि के साथ अमेरिका एवं अन्य प्रमुख देश भी चिंतित हैं। चीन की मनमानी केवल दक्षिण चीन सागर तक ही सीमित नहीं है। वह अराजक उत्तर कोरिया और आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले पाकिस्तान की भी ढाल बना हुआ है। अब तो वह भारत के आंतरिक मामलों में भी हस्तक्षेप करने पर आमादा है। तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा की अरुणाचल की यात्रा पर चीन ने जैसा विरोध दिखाया वह उसके गैरजिम्मेदार रवैये की एक बानगी भर है। यह अच्छा हुआ कि भारत ने दो टूक तरीके से चीन को यह अहसास करा दिया कि अपने आंतरिक मामले में वह किसी भी तरह का हस्तक्षेप बर्दाश्त नहीं करेगा। चीन अरुणाचल पर अपना हक जमाने के साथ उसे विवादित क्षेत्र मान रहा है। दलाई लामा जब तिब्बत पर चीन के अनधिकृत कब्जे के समय भागकर भारत आए तो भारत ने उन्हें न केवल शरण दी, बल्कि तिब्बत पर चीन के कब्जे का विरोध भी किया। दलाई लामा चीन को फूटी आंख नहीं सुहाते। वह उनकी हर गतिविधि का विरोध करता है। भारत जिस तरह चीन के बेजा दबाव का प्रतिकार कर रहा है उसे देखते हुए बीजिंग को यह अहसास हो जाए तो बेहतर कि अब भारत उससे दबने वाला नहीं है।
बांग्लादेश के साथ रिश्तों में मजबूती भारतीय हितों की रक्षा में सहायक बनने के साथ ही भाजपा को राजनीतिक तौर पर भी रास आने वाली है। जो कथित सेक्युलर बुद्धिजीवी और विपक्षी नेता भाजपा पर मुस्लिम विरोधी होने का ठप्पा लगाते रहते हैं उन्हें अपनी सोच बदलनी होगी। वे इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि भारत बांग्लादेश के साथ-साथ अरब देशों के साथ भी निकटता कायम कर रहा है। दक्षिण एशिया में भारत और पाकिस्तान के बाद बांग्लादेश ही सबसे बड़ा देश है।
भारत ने पाकिस्तान को दक्षिण एशिया समेत पूरी दुनिया में जिस तरह अलग-थलग करने का अभियान छेड़ रखा है उसे देखते हुए यह आवश्यक है कि बांग्लादेश से करीबी और बढ़े। पाकिस्तान के लिए इससे अधिक शर्मिंदगी की बात और कोई नहीं कि वह अपने आसपास ही अलग-थलग पड़ रहा है। इसका श्रेय मोदी की प्रभावशाली कूटनीति को जाता है। पहले की सरकारों से उलट मोदी सरकार पाकिस्तान को अतिरिक्त महत्व देने को तैयार नहीं। पिछले दिनों आतंकी सरगना मसूद अजहर पर सुरक्षा परिषद के प्रतिबंध की पहल को चीन द्वारा खारिज किए जाने और पाकिस्तान की ओर से कश्मीर राग अलापे जाने के बाद जब ट्रंप प्रशासन की ओर से ऐसे संकेत दिए गए कि अमेरिका भारत और पाकिस्तान के बीच मध्यस्थता कर सकता है तो भारत ने बिना लाग लपेट यह स्पष्ट किया कि कश्मीर मामले में किसी मध्यस्थता की गुंजाइश नहीं। विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने संसद में दिए गए अपने बयान में अमेरिका को सीधा संकेत देते हुए पाकिस्तान के समक्ष भी यह स्पष्ट कर दिया कि गिलगिट-बाल्टिस्तान समेत पूरा कश्मीर भारत का है। स्पष्ट है कि मोदी ने इस रुख को और स्पष्ट किया कि कश्मीर मामले में किसी तीसरे देश की मध्यस्थता नहीं हो सकती। यह विदेश नीति के मोर्चे पर भारत को मिल रही सफलता का ही परिणाम है कि लगभग छह दशक तक देश पर शासन करने वाली कांग्रेस की बोलती बंद है। इतना ही नहीं ममता बनर्जी को छोड़कर क्षेत्रीय दलों के वे नेता भी शांत हैं जो अपने संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए विदेश नीति को भी प्रभावित करने की कोशिश करते थे।
यह निराशाजनक है कि ममता बनर्जी बांग्लादेश के साथ तीस्ता नदी के जल बंटवारे पर अभी भी अड़ियल रवैया अपनाए हुए हैं। उन्हें राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता देनी चाहिए, क्योंकि विदेश नीति दल विशेष की नहीं, देश की होती है। यह समय की मांग है कि सभी राजनीतिक दल विदेश नीति पर एकजुट नजर आएं। इससे ही भारत का अंतरराष्ट्रीय कद बढ़ेगा। यदि हमारे राजनीतिक दल आर्थिक नीतियों के साथ-साथ विदेश नीति के मामले में दलगत राजनीतिक स्वार्थों का परित्याग कर सकें तो आने वाले समय में भारत ऐसी अंतरराष्ट्रीय हैसियत अपने आप हासिल कर सकता है कि कोई भी देश सुरक्षा परिषद में उसकी दावेदारी का विरोध करने की स्थिति में न रहे। सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता दक्षिण एशिया के साथ-साथ विश्व शांति के हित में ही होगी।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]