जयपुर साहित्य उत्सव और विवादों का चोली-दामन का साथ रहा है। इस बार भी इस उत्सव में एक अलग किस्म का विवाद खड़ा करने की कोशिश तब की गई जब आयोजकों ने राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के सह सरकार्यवाह दत्तात्रेय होसबोले और अखिल भारतीय प्रचार प्रमुख मनमोहन वैद्य को वक्ता के तौर पर निमंत्रित किया। इस निमंत्रण को पुरस्कार वापसी अभियान के अगुआ अशोक वाजपेयी और उदय प्रकाश की अनुपस्थिति से जोड़कर देखा गया। हालांकि सच यह है कि इस बार असहिष्णुता के कथित झंडाबरदारों को जयपुर के इस साहित्यक कुंभ में निमंत्रित ही नहीं किया गया था।

अशोक वाजपेयी, उदय प्रकाश, हरि कुंजरू आदि को निमंत्रित नहीं करना और दत्तात्रेय होसबोले एवं मनमोहन वैद्य की उपस्थिति से कई लेखकों के चहरे पर बेचैनी के भाव दिखाई दिए। जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल की साख और वैश्विक ब्रांड के मद्देनजर यह बात किसी के भी गले नहीं उतर रही थी कि कोई लेखक इस उत्सव का बहिष्कार इसलिए कर सकता है कि संघ के लोगों को बुलाया गया है। राजस्थान के कुछ लेखकों ने आयोजकों से दबी जुबान में अपनी आपत्ति अवश्य दर्ज करवाई। बावजूद इसके संघ के पदाधाकरियों के सत्र में श्रोताओं की जबरदस्त भागीदारी रही। साहित्य उत्सव में मौजूद लेखकों में भी उनको सुनने का कौतूहल देखने को मिला।

भारत में संवाद की परंपरा रही है, वाद-विवाद की नहीं, लेकिन आजादी के बाद से एक खास तरीके से बहस की संस्कृति को बढ़ावा दिया गया। किसी प्रकार की बहस या वाद-विवाद से तब तक कुछ हासिल नहीं होता जब तक संवाद न हो। वाद-विवाद या बहस की इसी संस्कृति को सत्ता के साथ लंबे समय तक चिपकी एक विचारधारा ने अपनाया। सत्ता की परजीवी इस विचारधारा ने समान विचार वाले लोगों से ही बहस की और उसके जरिये ही ऐसा माहौल बनाया कि समाज में बौद्धिक विमर्श अपने चरम पर है, लेकिन उससे कहीं कुछ असाधारण हासिल हुआ हो, ऐसा ज्ञात नहीं है, बल्कि चिंतन की जो हमारी थाती थी उस पर भी आयातित बौद्धिकता लाद कर उसके विस्तार को अवरुद्ध किया गया। पाणिनी ने अष्टाध्ययी की जो रचना की और उसे एक वैज्ञानिक आधार दिया उसे भी धीरे-धीरे भुला दिया गया।

संसार की सबसे वैज्ञानिक भाषाओं में से एक संस्कृत को पवित्रता के दायरे में बांधकर उसे पूजा पाठ की भाषा घोषित कर उसका गला घोंट दिया गया। मशहूर डच भाषाविज्ञानी और दार्शनिक फ्रिट्स स्टाल ने पाणिनी के मूल सिद्धांतों की तुलना यूक्लिड के ज्यामिती के सिद्धांतों से की और कहा कि जिस तरह यूक्लिड ने ज्यामिती के सिद्धांतों को पूरे यूरोप में स्थापित किया उसी तरह पाणिनी ने भारतीय ज्ञान परंपरा को वैज्ञानिक आधार प्रदान किया। पहले विदेशी आक्रमणकारियों की वजह से इस परंपरा को नुकसान पहुंचा और बाद में दुराग्रही वैचारिक आक्रमण ने इसके विकास को बाधित किया।

भारतीय ज्ञान परंपरा को रोकने के लिए आजादी के बाद बहस की संस्कृति को बढ़ावा दिया जाने लगा, जबकि होना यह चाहिए था कि बहस की जगह विचार विनियमय होता, लेकिन अमर्त्य सेन जैसे महान विद्वान ने भी आरग्यूमेंटेटिव इंडियन की अवधारणा को ही आगे बढ़ाया । नतीजा यह हुआ कि विचार विनिमय का दौर रुक गया। बहस वाली विचारधारा के अलावा जो भी विचारधारा थी उसे अस्पृश्य माना जाने लगा। उनसे संवाद तक रोक दिया गया। नतीजा यह हुआ कि दशकों तक एक विचारधारा का एकाधिकार रहा। जहां एकाधिकार होता है वहां अधिनायकवाद का जन्म होता है। पिछले नौ साल तक जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में संघ से सीधे तौर पर जुड़े किसी विचारक या प्रचारक को आमंत्रित नहीं किया गया। बगैर संघ के विचारों को सुने और बिना उनके लोगों से संवाद किए उनकी विचारधारा को खारिज किया जाता रहा।

जिस तरह से किसी उत्पाद की एक लाइफ साइकिल होती है उसी तरह विचारधारा भी ऊपर-नीचे होती रहती है। वामपंथी विचारधारा के अंतर्विरोधों और मार्क्स के अनुयायियों के विचार और व्यवहार में अंतर ने उसे और कमजोर किया तो लोग वैकल्पिक विचारधारा की ओर बढ़े। उसे जानने की कोशिश की जाने लगी और उसी का नतीजा था मनमोहन वैद्य और होसबोले का जयपुर लिटरेचपर फेस्टिवल में आना। अब अगर उनके विचारों पर विचार विनिमय हो तो अस्पृश्यता की दीवार टूटेगी और यह स्थिति लोकतंत्र को मजबूत करने में सहायक होगी।

इस साहित्य उत्सव के आयोजकों ने जिस तरह पुरस्कार वापसी समूह को इस बार निमंत्रित नहीं करके उनको अपनी राजनीति चमकाने का मौका नहीं दिया उसी तरह उन्हें तसलीमा नसरीन के विरोध को भी दरकिनार करना होगा। अगर तसलीमा का विरोध कर रहे चंद मुस्लिम संगठनों के दबाव में आकर उन्हें मंच नहीं देने का फैसला वापस नहीं होता तो यह दुर्भाग्यपूर्ण होगा। यह ठीक नहीं कि तसलीमा के विरोध और चलते आयोजकों की ओर से उन्हें भविष्य में नहीं बुलाने को लेकर हमारे बौद्धिक समाज में किसी तरह का कोई स्पंदन नहीं हुआ। यह भी एक किस्म की बौद्धिक बेइमानी है। जब बौद्धिक समाज या कोई विचारधारा अपने आकलन में पक्षपात करने लगती है तब यह मान लेना चाहिए कि उसका संक्रमण काल है।

[लेखक-अनंत विजय]