भौतिक जीवन में छोटी असफलता मिलने पर मनुष्य स्वयं को अभागा समझने लगता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि वह अभागे की वास्तविक परिभाषा जानता ही नहीं है। जो व्यक्ति नैतिक मूल्यों, दया और परोपकार जैसे गुणों को त्यागकर लोभ, मोह, ईष्र्या, मद और अहंकार को अपनाकर अपने संपर्क में आने वालों के साथ चालाकीपूर्ण व्यवहार करता है उसे अभागा कहा जाता है। ऐसा व्यक्ति वास्तव में अभागा है। ऐसा इसलिए, क्योंकि वह सांसारिक भौतिक लाभों के कारण मनुष्य जीवन के परम उद्देश्य ईश्वर की अनुभूति को कभी प्राप्त नहीं कर सकता। भगवान ने स्वयं यह कहा है कि निर्मल मन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। इस प्रकार का मनुष्य कर्मफल के सिद्धांत और ईश्वर के विधान में भी विश्वास न करके स्वयं को ही नियंता समझने लगता है और इस मार्ग पर चलकर वह मनुष्य के स्थान पर राक्षसों की श्रेणी में आकर अभागा कहलाता है। आदिकाल में इसके उदाहरण स्वरूप रावण, कंस, हिरण्यकश्यप आदि के नाम लिए जा सकते हैं। आदिकाल की भांति आज के युग में इस तरह के राक्षसों की भरमार है। बड़े-बड़े भ्रष्टाचारी, घोटालेबाजों और अपराधियों के मनोवैज्ञानिक अध्ययन से यह पुष्टि हुई है कि इनमें कुटिलता और कठोरता कूट-कूट कर भरी हुई थी। इस प्रकार के राक्षसों का अंत जरूर होता है।
सनातन धर्म में जीवन जीने के लिए आश्रम व्यवस्था की गई है जिसे क्रमश: ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास कहा गया है। गृहस्थ में वह कर्म क्षेत्र में रहकर अपनी सांसारिक जिम्मेवारियों को निभाता है, परंतु वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम का तो उद्देश्य ही उसे संसार से मुक्ति दिलाना है। आज के युग में वानप्रस्थ 50 वर्ष के स्थान पर 60 वर्ष में प्रारंभ होता है। इस आयु तक उसकी ज्यादातर जिम्मेवारियां पूर्ण हो जाती हैं इसलिए उसको शास्त्रीय विधान और परमात्मा के साक्षात्कार का प्रयास सच्चे अर्थों में वानप्रस्थी बनकर करना चाहिए। इसके लिए पतंजलि ने यम और नियम का भी सुगम मार्ग सुझाया है। यम में सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह शौच और अस्तेय व नियम में तप, ईश्वर प्राणिधान इत्यादि का प्रावधान है। आइए अपनी इंद्रियों पर नियम करते हुए अभागा की श्रेणी से निकलकर भक्तों की श्रेणी में आकर ईश्वर अनुभूति करके जीवन को सफल बनाएं।
[ कर्नल (अव.) शिवदान सिंह ]