विश्व भर के अनगिनत प्राणियों में मानव ही सर्वश्रेष्ठ है। मनुष्य से बढ़कर और कोई प्राणी नहीं है। धर्म और अधर्म, पाप और पुण्य के संबंध में जितना विचार मनुष्य ने किया है, उतना देवों ने भी नहीं किया है। मनुष्य में ही ऐसी शक्ति है, जो धर्म और अधर्म के संबंध में गंभीरता से विचार करता है और पाप को छोड़कर व पुण्य और धर्म को अपनाकर परमात्मा का साक्षात्कार कर सकता है। प्रत्येक मनुष्य चाहता है कि उसे सभी प्रकार का सुख मिले। धन, परिवार, निरोगी शरीर, दीर्घ आयु आदि सुख पुण्य से प्राप्त होते हैं। पाप का परिणाम कष्टदायक है। इसीलिए पाप करने वाले मनुष्य भी पापों के परिणाम से बचने की सोचते हैं। ‘जो जैसा करेगा, वैसा ही भरेगा।’ यह मानी हुई बात है। यह बड़े आश्चर्य की बात है कि लोग पापों के परिणाम से बचना चाहते हैं, पर पाप-प्रवृत्तियों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं होते। पुण्य के परिणामस्वरूप सुख को सभी चाहते हैं, पर परोपकार आदि पुण्य-कार्र्यों में प्रवृत्त नहीं होते। चाहते कुछ और हैं और प्रवृत्ति करते हैं उसके विपरीत। यही आश्चर्य की बात है। मन, वचन, और शरीर के जरिये कोई भी पाप-प्रवृत्ति हो रही हो, तो उसे रोकना धर्म है। आज नहीं तो कल, इस भव में नहीं तो आगामी जन्म में पाप का परिणाम-दुख भोगना ही पड़ेगा, यह याद रखना आवश्यक है।
पुण्य किसी भी प्राणी को दुख और कष्ट से बचाने, उसकी सुख-सुविधा का उपाय करने से होता है। जितनी भी शुभ प्रवृत्तियां हैं- पुण्य हैं और अशुभ प्रवृत्तियां पाप हैं। हम शुभ में प्रवृत्त हों और अशुभ से बचें, यही समझने का सारांश है। इस विश्व की व्यवस्था सुचारू रूप से चले, इसके लिए परोपकार बहुत आवश्यक है। ऐसा इसलिए, क्योंकि प्राणियों का जीवन एक दूसरे के सहयोग पर ही आश्रित है। हम जब दूसरों का सहयोग या उपकार पाते ही रहते हैं, तो दूसरों का उपकार करना भी हमारा कत्र्तव्य हो जाता है। इस शरीर का धारण अपने पोषण और संरक्षण तक ही सीमित न रखकर दूसरे के लिए भी यह कुछ काम में आए, इसका लक्ष्य निर्धारित करना चाहिए। यह शरीर तो प्रतिक्षण विनाश की ओर बढ़ रहा है। इसलिए इस शरीर से जो भी कुछ दूसरों की भलाई हो जाए, वही अच्छा है। इस शरीर से परोपकार के जरिये महान गुण प्राप्त कर लेना ही शरीर धारण कर लेने की सार्थकता है।
[ -डॉ. विजय प्रकाश त्रिपाठी ]