केसी त्यागी

गेहूं कटाई के मौके पर सरकार द्वारा गेहूं पर आयात शुल्क लगाने के सकारात्मक संकेत से किसान और उनसे जुड़े संगठनों ने राहत की सांस ली है। हालांकि अभी तक यह खुलासा नहीं किया गया कि आयात शुल्क कितना बढ़ाया जाएगा। बहरहाल उम्मीद यही है कि गेहूं के बंपर उत्पादन के अनुमान को देखते हुए सरकार कोई सकारात्मक फैसला ही लेगी। पिछले साल दिसंबर में सरकार ने गेहूं आयात पर जारी आयात शुल्क को पूरी तरह खत्म करने का फैसला किया था जिसका संसद के भीतर और बाहर पुरजोर विरोध हुआ। जहां सरकार इसे घरेलू बाजार में गेहूं की कीमतों को काबू में करने के लिए जरूरी बता रही थी वहीं विपक्षी दलों का कहना था कि यह पूर्ण रूप से किसान विरोधी निर्णय है। आयात शुल्क कम करने या हटाने की स्थिति में बाहर के देशों से आयात पर कोई अतिरिक्त कर देने का प्रावधान समाप्त हो जाता है और आयातित अनाज की बहुतायत हो जाती है जिसका सीधा असर देश के किसानों पर पड़ता है। अनाज की प्रचुरता होने का सबसे बड़ा खतरा यह होता है कि देश के किसानों को ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ यानी एमएसपी से भी वंचित रहना पड़ता है।
संसद में खाद्य मंत्री द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार 2006 से 2015 तक गेहूं का आयात शुल्क शून्य रहा। 2015 में इस पर 25 प्रतिशत आयात शुल्क लगाया गया जो लंबे समय तक नहीं रहा। मंत्रालय ने सूखे और ओलावृष्टि की दलील देकर सितंबर, 2016 में आयात शुल्क घटाकर 10 प्रतिशत कर दिया जो तीन महीने बाद ही शून्य हो गया। इससे स्पष्ट है कि एक के बाद एक सरकारें आयात को प्रश्रय देती रहीं और घरेलू उत्पादन को बढ़ाने के बजाय भंडारण क्षमता और बाजार के हालात को लेकर ही ज्यादा गंभीर रहीं। आयात शुल्क खत्म होने के साथ ही कारोबारियों ने ऑस्ट्रेलिया और यूक्रेन से भारी मात्रा में गेहूं आयात कर मौके का फायदा उठाया। एक रिपोर्ट की मानें तो इस बीच लगभग 55 लाख टन गेहूं 1625 रुपये के घोषित समर्थन मूल्य से भी कम कीमत पर आयात हुआ। राहत की बात यही है कि सरकार फिर आयात कर लगाने पर विचार कर रही है, लेकिन बड़ी समस्या यह है कि गेहूं की कटाई शुरू होने और कई राज्यों में खरीद प्रक्रिया आरंभ होने के बावजूद कर मुक्त आयात पर कोई प्रतिबंध नहीं लगा है। गेहूं उत्पादक लगातार आयात शुल्क लगाने की गुहार करते रहे हैं। सरकारी आंकड़ों के मुताबिक चालू रबी सत्र में गेहूं का रकबा पिछले साल की तुलना में सात प्रतिशत बढ़कर लगभग 320 लाख हेक्टेयर रहा। इस दौरान मानसून भी मेहरबान रहा जिसके दम पर लगभग 9.7 करोड़ टन गेहूं उत्पादन का अनुमान है। वहीं भारतीय खाद्य निगम यानी एफसीआइ के भंडारों में बीते साल एक दिसंबर तक 1.64 करोड़ टन गेहूं भंडार पहले से ही जमा था। ऐसे में निशुल्क आयात की आड़ में अनाज कारोबारी कंपनियों को भंडारण करने की खुली छूट मिली। चुनिंदा कंपनियों का इस बाजार में एकाधिकार है। इनके द्वारा उत्पादन के अनुमान में कमी बताकर आयात का दबाव भी बनाया जाता है। समस्या सिर्फ गेहूं या रबी उत्पादकों के साथ नहीं, बल्कि अन्य फसल उत्पादकों के साथ भी है। ध्यान रहे कि नमी के नाम पर धान उत्पादकों को एमएसपी से कम का भुगतान खबर बनती रही है। टमाटर, प्याज और आलू भी एक-दो रुपये किलो के भाव बिके हैं। प्रतिवर्ष गन्ना किसानों को भुगतान हेतु मिल मालिकों के चक्कर काटने पड़ते हैं।
एक रिपोर्ट के अनुसार उत्तर प्रदेश में अक्टूबर-16 से फरवरी-17 तक 116 चीनी मिलों द्वारा कुल 17,893.96 करोड़ रुपये का गन्ना खरीदा गया। किसानों का 5,769.02 करोड़ रुपये मिलों पर बकाया है। सरकारी तंत्र बड़े मिल मालिकों पर शिकंजा कसने में नाकाम रहा। राहत की बात यही है कि राज्य की नई सरकार ने किसानों की कर्जमाफी की घोषणा की है। हालांकि इस पर बैंकों की तीखी प्रतिक्रियाएं आनी शुरू हो गई हैं। आरबीआइ और एसबीआइ, दोनों ने ही इसे अर्थव्यवस्था के प्रतिकूल बताया है। आश्चर्य की बात है कि बैंकों और वित्तीय संस्थानों के सुर किसान समर्थित नीतियों के खिलाफ होते हैं, परंतु बैंकों द्वारा महज दो वित्त वर्षों में 1.14 लाख करोड़ रुपये चुपचाप बट्टे खाते में दर्शा दिए जाते हैं। संसद की लोक लेखा समिति के अनुसार भारतीय बैंकों की छह लाख करोड़ रुपये से अधिक की गैर निष्पादित अस्तियां यानी एनपीए के लिए भारतीय कंपनियां ही जिम्मेदार हैं। फंसे कर्जों में 55 प्रतिशत हिस्सा कारोबारी घरानों का है। चूंकि किसान भी भारतीय अर्थव्यवस्था के महत्वपूर्ण अंशभागी हैं लिहाजा उन्हें भी वित्तीय संस्थानों और सरकार से न्यायपूर्ण नीतियों की दरकार है। प्राकृतिक आपदा भारतीय किसानों की बड़ी दुश्मन है और उससे निपटने के लिए अभी तक किए गए प्रयास नाकाफी हैं। मुआवजे और बीमा की राशि उनके जख्म पर मरहम से भी कम होती है। स्थानीय महाजनों द्वारा 30 से 60 प्रतिशत की ब्याज दर पर लिया कर्ज चुकाना उनके लिए असंभव हो जाता है। 2014-2015 के दौरान किसानों की आत्महत्या के प्रतिशत में वृद्धि उनकी दुर्दशा को ही दर्शाती है। ये आंकड़े घटने के बजाय बढ़ते ही जा रहे हैं।
खेती-बाड़ी घाटे का सौदा ही न बनी रहे, इसके लिए तात्कालिक तौर पर उपाय करने होंगे। इसमें सबसे अहम एमएसपी की भूमिका होगी। डॉ. स्वामीनाथन की रिपोर्ट किसानों को 50 प्रतिशत लाभकारी मूल्य दिलाने की सिफारिश करती है और यह चुनावी वादा भी है। यह भारतीय किसानों के लिए जीवन रेखा बन सकती है। यह एकदम उचित समय है कि सरकार किसानों को उचित दाम देने की गारंटी तय करे। प्राकृतिक आपदा की वजह से फसलों का नष्ट होना एक बात है, किंतु बंपर उत्पादन के बाद भी फसलों का उचित दाम न मिल पाना तंत्र की असफलता जाहिर करने के साथ ही किसानों को भी हतोत्साहित करता है। किसानों के लिए ‘लाभकारी’ मूल्य आज भी दूर की कौड़ी हैं। प्रधानमंत्री 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने पर जोर दे रहे हैं, परंतु इसके लिए स्पष्ट योजना का अभाव दिखता है। वक्त का तकाजा यही है कि स्किल इंडिया और मेक इन इंडिया के साथ-साथ ‘ग्रो इन इंडिया’ की भी बुनियाद रखकर उसमें तेजी लाई जाए।
[ लेखक जदयू के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं ]