ज्ञान चतुर्वेदी

तमाम लोग मुझसे पूछते हैं कि आप अपने वक्त का कैसे प्रबंधन करते हैं कि डॉक्टरी और लेखन दोनों के लिए समय निकाल लेते हैं? उन्हें भ्रम है कि मैं अपने समय का जबरदस्त प्रबंधक हूं। जबकि सच यही है कि मेरा आधा समय तो लोगों के बीच इस भ्रम को बनाए रखने में ही खर्च हो जाता है। दरवाजे पर किसी के दस्तक देने के साथ ही खिड़की से झांककर, फिर तदनुसार कोई किताब या लिखने वाली अपनी डायरी हाथ में लेकर ही दरवाजा खोलता हूं ताकि आने वाले को भ्रम बने कि लेखक अपने लेखन में डूबा है। कभी सोना या ऊंघना हो तो यह काम भी परदे खींचकर ही करता हूं। वैसे अक्सर मैं इसी क्रिया में लीन रहता हूं। अभ्यास के जरिये मैंने ऐसा एक मारक पोज साध लिया है जिसमें ऊंघते हुए भी मेरी शक्ल एक ऐसे चिंतक की निकल आती है जिसकी आंखें गहन चिंतन में बंद हो गई हों। अभी सोते हुए यह पोज नहीं साध पाता। कोशिश जारी है। हो जाएगा। साध लूंगा। लोग साध ही लेते हैं। हमारे समय के एक बड़े चिंतक ने ऐसा साधा है कि जब तक खर्राटे ही न मारने लग जाएं तब तक बताना असंभव होता है कि वे गहन चिंतन में मुब्तिला हैं या सो रहे हैं? सो हमसे कोई पूछे तो हम तो यही कहकर टाल देते हैं कि समय प्रबंधन तो हमारे खानदान की रवायत है। जबकि सही बात यह है कि यदि हम अपने खानदान की समय प्रबंधन की रवायत को बताएं तो अच्छे-अच्छे समय गुरु चकरा जाएं। मैं आज इसी रवायत की चर्चा करके आपका समय खराब करने की इजाजत चाहता हूं।
एक बड़ी दूर के रिश्तेदार थे। हमारे फुफेरे के ममेरे के कजिन ब्रदर टाइप रिश्ता। बड़े आदमी थे। हमारे दादाजी के दूर के कुछ। वे एक बड़े जमींदार थे और मात्र इसी कारण दूर के होते हुए भी हम उन्हें काफी करीबी मानते थे। अपने दादाजी को तो हम दादाजी कहते थे, क्योंकि उसके अलावा कोई और चारा भी न था, परंतु उनके अलावा हम उन्हें ही दादाजी कहते तो सभी जानते थे कि हम उन्हीं जमींदार साहब का ही जिक्र कर रहे हैं, क्योंकि इतना पैसे वाला पास होते हुए किसी और को दादाजी कहने की मूर्खता करने वाले लोग हम नहीं थे। उनके पास समय प्रबंधन की एक अलग किस्म की ही समस्या थी। समय उनके पास बहुत था। बस काटे नहीं कटता था। सुबह नींद से उठते ही यह चुनौती मुंह बाएं खड़ी हो जाती थी कि आज का लंबा दिन कैसे काटा जाए। जहां तक रात काटने की बात थी तो उसके लिए हमेशा माकूल इंतजाम रहा करते थे जिनके बारे में आप जैसे समझदार व्यक्ति को कुछ बताने की जरूरत नहीं।
समय काटना तमाम लोगों के लिए विकट समस्या है। हमारे ये दादाजी कई तरह से इस समस्या से निबटते थे। नींद से उठते ही अपनी खीझ उतारने के लिए नौकरों की तलाश करते और नौकर नहीं मिलते तो जो मिल जाता उस पर ही फूट पड़ते। मुकदमेबाजी में भी उनका खूब वक्त गुजरा। वकील तो उनके लिए समय कटवाने वाले फरिश्ते बन गए। फिर झूठी गवाहियां और सच्चे गवाहों की प्रताड़ना का दौर। इन सभी में काफी वक्त गुजर जाया करता। उनके ठीक उलट हमारे असली दादाजी थे जो बेहद ईमानदार पुलिस अफसर रहे। उनकी पूरी जिंदगी का आधा समय अपनी ईमानदारी कायम रखने और आधा समय बेईमानी से बचने में गुजरा। वे हर चीज को ईमानदारी और बेईमानी की कसौटी में तौलते। रिटायरमेंट के बाद का समय उन्होंने अपनी ईमानदारी के किस्से सुनाने में निकालना चाहा, परंतु किसी के भी पास भी इन्हें सुनने का समय नहीं था, बल्कि तमाम लोगों ने खुद को आत्मग्लानि से बचाने के लिए ऐसे किस्सों को सुनने से इन्कार कर दिया। दादाजी का पूरा समय इसी तलाश में बीता। उन्हें कोई न मिला। वे ईमानदारी को छूत की बीमारी सा ढोते रहे और हर दिन अकेले होते चले गए। अलबत्ता इनका बुढ़ापा इस लिहाज से ठीक गुजरा कि वे ऐसी बीमारी के चलते बाद में पागल भी हो गये थे। पागलपन की अपनी दुनिया में सुकून से समय बिताते हुए वह बेहद अकेलेपन की मौत मरे। यदि इस देश में आप ईमानदार हैं और बेईमान होने की राजी नहीं तो फिर आपके अच्छे दिन पागल होने पर ही आते हैं।
हमारे पिताजी सरकारी डॉक्टर थे। समय प्रबंधन की वह कला यदि उनके पास न होती तो वे जीवन में कतई आगे न बढ़ पाते। वे अपने समय को गरीब मरीजों और अमीर मरीजों के बीच बांटा करते थे। गरीबों के विषय में उनका विश्वास था कि वे ‘फेथ हीलिंग’ से ही ठीक हो जाते हैं और उन्हें छूने की भी कोई खास जरूरत नहीं होती। सरकारी अस्पतालों में उन दिनों भी लोगों का वैसे ही हुजूम उमड़ता था जैसे कि आज, लेकिन हमारे पिताजी का समय प्रबंधन ऐसा कि सभी काम दो घंटे में निपटाकर अमीरों के लिए बाकी वक्त निकाल लेते।
अमीरोंं से पैसा बनाने के बाद भी जो समय बचता उसमें वे जिले के सिविल सर्जन को साधते, हेल्थ डायरेक्टरेट के चक्कर लगाते, वहां के क्लर्कों के घर गांव का घी पहुंचाने के लिए शहर से घी का पीपा खरीदने जैसे न जाने कितने प्रपंच करते। दादाजी की ईमानदारी ने हमारे पिताजी के जेहन पर गहरा असर डाला था। वे इस चीज के नाम से ही नफरत करने लगे थे। लिहाजा उनका समस्त समय प्रबंधन बेईमानी प्रबंधन में लगा जैसा कि आप आजकल देखते ही होंगे। परंतु आश्चर्य की बात यह रही कि वे भी बहुत अकेलेपन की मौत मरे। अब यदि ईमानदारी और बेईमानी दोनों ही आपको अंतत: अकेला करके छोड़ दे तो आदमी आखिर किसका दामन थामे? अब पिताजी के बाद हमारी बात। हम तो आज तक तय ही नहीं कर पाए कि पूरा समय कहां देना ठीक रहेगा- डॉक्टरी में कि लेखन में? हम भी इसी पहेली से जूझ रहे हैं।

[ हास्य-व्यंग्य ]