बाजार में बिकने वाली कुछ दवाएं पेटेंटीकृत होती हैं। किसी कंपनी ने भारी खर्च करके इन दवाओं की खोज की है। पेटेंट कानून के अंतर्गत कंपनी को छूट होती है कि 20 वर्ष तक इन दवाओं को मनचाहे मूल्य पर बेचकर लाभ कमाए। रिसर्च में किए गए निवेश पर इस प्रकार लाभ कमाया जाता है। दूसरी दवाएं जेनरिक होती हैं। पेटेंट की 20 वर्ष की अवधि पूरी हो जाने के बाद किसी भी कंपनी को छूट होती है कि उस दवा का उत्पादन करे। वर्तमान में पेनसिलिन तथा पैरासिटामोल जैसी दवाएं इस वर्ग में आती हैं। इन दवाओं के उत्पादन में कंपनियों के बीच प्रतिस्पर्धा होती है। अत: आशा की जाती है कि इनके दाम कम होंगे। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है, क्योंकि चुनिंदा कंपनियां इन दवाओं को अपने ब्रांड के नाम से बेचती हैं। जैसे पैरासिटामोल को एक कंपनी सेरिडान और दूसरी कंपनी क्रोसिन के नाम से बेचती है। अपने ब्रांड को बढ़ाने के लिए इन कंपनियों द्वारा भारी खर्च किए जाते हैं। एडवरटाइजमेंट के अतिरिक्त सेल्स रिप्रेजेंटेटिव नियुक्त किए जाते हैं। इनके माध्यम से डॉक्टरों को गिफ्ट, फ्री पर्यटन तथा अन्य प्रलोभन दिए जाते हैं। दुकानदारों के माध्यम से नगद कमीशन भी दिया जाता है। जैसे कोई दवा एक कंपनी द्वारा 100 रुपये में बेची जा रही है। दूसरी कंपनी इसे 500 रुपये में बेचती है। इस 500 रुपये में से 100 रुपये डॉक्टर को कमीशन दिया जाता है। अपने कमीशन के चक्कर में डॉक्टर 500 रुपये की महंगी इवा लिख देते हैं यद्यपि उसी क्वालिटी की दूसरी दवा 100 रुपये में उपलब्ध है।

इस मुनाफाखोरी पर नियंत्रण करने के लिए सरकार विचार कर रही है कि निर्माता, डिस्ट्रीब्यूटर तथा विक्रेता के अधिकतम मार्जिन निर्धारित कर दे। जैसे यदि दवा बनाने में लागत 25 रुपये आती है तो निर्माता का मार्जिन 15 रुपये, डिस्ट्रीब्यूटर का मार्जिन 20 रुपये तथा विक्रेता का मार्जिन 40 रुपये अधिकतम निर्धारित कर दिया जाए। तब मरीज को दवा 100 रुपये में उपलब्ध हो जाएगी। डॉक्टर को कमीशन देकर दवा को 500 में नहीं बेचा जा सकेगा। सरकार के इस मंतव्य का स्वागत है।

इस प्रयास में खतरा नौकरशाही द्वारा शोषण का है। ड्रग इंस्पेक्टर को घूस खाने का एक और रास्ता मिल जाएगा। ईमानदार और जनहितकारी शासन उपलब्ध कराने के सरकार के संकल्प में बाधा आएगी। इस समस्या पर नियंत्रण के दूसरे रास्ते उपलब्ध हैं। एक रास्ता है कि जेनरिक दवाओं पर ब्रांड लगाने पर रोक लगाई जाए। जैसे पैरासिटामोल को अलग-अलग नाम से बेचने पर प्रतिबंध लगा दिया जाए। डॉक्टरों को कानूनन आदेश दिया जाए कि मूल दवा पैरासिटामाल का नाम ही पर्चे पर लिखें। तब मरीज के ऊपर निर्भर करेगा कि वह किस निर्माता द्वारा बनाई गई दवा को खरीदना चाहता है। साथ-साथ विभिन्न निर्माताओं द्वारा बनाई गई दवाओं की गुणवत्ता की जांच कराई जाए और इनके परिणाम को स्वास्थ्य मंत्रालय की वेबसाइट पर डाला जाये। विक्रेता के लिए अनिवार्य बना दिया जाए कि इन जांच परिणामों को वह खरीददार को उपलब्ध कराए। ऐसा करने से खरीददार उस दवा को खरीदेगा जो अच्छी और सस्ती होगी। डॉक्टर को कमीशन देकर लिखाई गई महंगी दवा से उसे छुटकारा मिल जाएगा। ड्रग इंस्पेक्टर को घूस लेने का अतिरिक्त अवसर भी नहीं मिलेगा। पेटेंटीकृत दवाओं पर भी सरकार के हस्तक्षेप की जरूरत है। पेटेंट कानून में व्यवस्था है कि जनस्वास्थ्य की रक्षा के लिए अथवा किसी कंपनी द्वारा दवा को बहुत महंगा बेचने पर सरकार द्वारा पेटेंट की अनदेखी करते हुए उस दवा को दूसरे को बनाने देने का अनिवार्य लाइसेंस दिया जा सकता है। जाहिर है कि पेटेंट धारक कंपनी को स्वीकार नहीं होगा कि उसके पेटेंट को तोड़कर कंपलसरी लाइसेंस दिया जाए। जिस दवा को वह 500 रुपये में बेच रहा है उसी दवा को कंपलसरी लाइसेंस के अंतर्गत 100 रुपये में दूसरी कंपनी द्वारा बेचा जाएगा। यह पेटेंट धारक के लाभ कमाने के अवसर पर सीधी चोट है। आज दवाओं के अधिकतर पेटेंट विकसित देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास हैं। अत: कंपलसरी लाइसेंस देने से इन देशों की कंपनियां नाराज होती हैं।

इन कंपनियों के नाराज होने का सीधा दुष्प्रभाव भारत सरकार के मेक इन इंडिया प्रोग्राम पर पड़ता है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां भारत में निवेश करने से विमुख होती हैं। लेकिन कंपलसरी लाइसेंस के आधार पर घरेलू कंपनी द्वारा उत्पादन बढ़ता है और घरेलू मेक इन इंडिया बढ़ता है। भारत सरकार के सामने संकट है। कंपलसरी लाइसेंस देने से जनता को सस्ती दवा मिलती है, परंतु विदेशी मेक इन इंडिया प्रभावित होता है। विदेशी कंपनियों के आने से भारत में उत्पन्न होने वाले रोजगार तथा तकनीकों के हस्तांतरण से देश वंचित होता है। दूसरी तरफ कंपलसरी लाइसेंस न देने से देश की जनता को महंगी दवा मिलती है, परंतु घरेलू मेक इन इंडिया को सफलता मिलती है। मेरा मानना है कि हाथ की एक चिडिय़ा मंडी में बैठी दो चिडिय़ा से उम्दा है। कंपलसरी लाइसेंस देने से जनता को सस्ती दवा और घरेलू मेक इन इंडिया में विस्तार सुनिश्चित है। तुलना में कंपलसरी लाइसेंस न देने से जनता को महंगी दवा खरीदना निश्चित है, जबकि बहुराष्ट्रीय मेक इन इंडिया अनिश्चित रहता है।

भारतीय जेनरिक दवा बनाने की कंपनियों पर आरोप है कि उनके द्वारा विकसित देशों में अनुचित दाम वसूले जा रहे हैं। कुछ दवाओं के दाम एक वर्ष के अंदर दस गुना हो गए हैं। अमेरिका, इंग्लैंड, जापान तथा कोरिया में इस बात को लेकर उद्वेलन है। यहां समस्या विकसित देशों के कानूनों की है। उन देशों में दवा बेचने की प्रक्रिया बहुत जटिल है। भारतीय कंपनियों को उनके नियमों की शर्तें पूरा करने में बहुत खर्च उठाना पड़ता है। जिस प्रकार विकसित देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियां रिसर्च में निवेश करके पेटेंट के माध्यम से ऊंचे दाम वसूलती हैं उसी प्रकार विकसित देशों के कानून के अनुपालन में निवेश करके भारतीय कंपनियां विकसित देशों में ऊंचे दाम वसूल कर रही हैं। इस समस्या का हल विकसित देशों के कानून का सरलीकरण है बिल्कुल उसी तरह जैसे पेटेंट कानून का सरलीकरण हमारे देश के लिए महंगी दवाओं का हल है। विकसित देशों में भारतीय जेनरिक दवाओं के विरोध से विचलित नहीं होना चाहिए और उन देशों पर कानूनों के सरलीकरण का दबाव बनाना चाहिए।

[ लेखक डॉ. भरत झुनझुनवाला, आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं और आइआइएम बेंगलूर में प्रोफेसर रह चुके हैं ]