आज व्यक्ति का जीवन इतना जटिल हो गया है कि तनाव के कारण खुशी के दो पल भी अपने लिए निकालना कठिन हो चुका है। इसका एक कारण यह भी है कि हमने खुशी, सुरक्षा, आश्रय सबकी अपेक्षा दूसरों से या बाह्य जगत से कर रखी है। विलियम शेक्सपियर ने कहा है कि अधिकतर लोगों के दर्द की मूल वजह अपेक्षा ही है। लाइफ बैलेंस इंस्टीट्यूट के संस्थापक फिलिप मोफिट का कहना है कि अपेक्षाओं के कई रूप होते हैं। फिर भी इंसान इनकी पूर्ति का प्रयास करता रहता है। खुश रहने के दो ही रास्ते हैं-अपनी सच्चाई पर विश्वास रखें और अपेक्षाओं में कटौती करें। अपेक्षा करें, लेकिन अपने आप से। अपेक्षाओं का निर्धारण अपनी सीमाओं में रहकर करें, दृढ़प्रतिज्ञ हो जाएं। दरअसल हमारे सामने सबसे बड़ी चुनौती एक व्यक्ति को उसके मूल स्वभाव और रूप में स्वीकार करने की होती है। जिस क्षण हमें यह आत्मबोध हो जाएगा कि हमारी अपेक्षाएं लोगों में परिवर्तन नहीं ला सकतीं, तो कोई आकांक्षा ही नहीं रहेंगी, क्योंकि स्थिति विकट तभी होती है, जब अपेक्षाएं पूर्ण न हों। इसीलिए अपेक्षाओं की उड़ान कभी अप्रत्याशित, अव्यावहारिक या असाध्य नहीं होनी चाहिए।
ऐसे में हमें पहले से ही तय कर लेना चाहिए कि हम क्या चाहते हैं और अमुक वस्तु को प्राप्त करने से क्या लाभ मिलेगा? ऐसा करने से हमें वास्तविक इच्छाओं और क्षणिक चाहतों के बीच का अंतर समझने में आसानी होगी। अपेक्षाओं से मुक्त होने के लिए आवश्यक है अपने निर्णय का उत्तरदायित्व समझदारी से लेना होगा। अहंकार अपेक्षाओं को जन्म देता है। हम जिस भाव को लेकर जीते हैं, यदि वह पूरा नहीं होता तो मन उदास हो जाता है। जो करना है, स्वयं करना है। इसके लिए दृढ़ प्रतिज्ञ हो जाएं, किसी अन्य के सहयोग की अपेक्षा न करें। आप किसी से अपने समान किसी कार्य के प्रति समर्पण की अपेक्षा नहीं कर सकते। अपने को कमजोर न समझें, अपने आप को पहचानें। आज समाज, परिवार और हर जगह अपेक्षाओं की भरमार है। मां-बाप, पिता-पुत्र, पति-पत्नी, भाई-बहन, बॉस-अधीनस्थ हर एक को दूसरे से अपेक्षाएं रहती हैं। पारिवारिक विघटन इन्हीं अपेक्षाओं की देन है। क्रोध, चिड़चिड़ापन, तनाव अपेक्षाओं के कारण बढ़ते जा रहे हैं। आत्महत्याओं के कारण के मूल में भी अपेक्षाएं ही होती हैं। आत्मविश्वास की कमी, नकारात्मक सोच में वृद्धि करती है, जो कुंठाओं को जन्म देती है। इसीलिए अपेक्षा की उपेक्षा करनी चाहिए।
[ बीना जैन ]