यह समस्त सृष्टि एक सुनिश्चित रचना है। इसका एक-एक कण प्रभुसत्ता की नियमावली से अनुशासित है, नियंत्रित है। प्रभु सच्चिदानंद है। उनका मूल उद्देश्य प्राणिमात्र को शुभ आनंद प्रदान करना है। मनुष्य को छोड़कर विश्व का प्रत्येक प्राणी एक नैसर्गिक आनंद को प्राप्त करता है, परंतु मनुष्य ही एक ऐसा प्राणी है जो स्वत: आनंदित नहीं दिखाई देता। इसका स्पष्ट कारण यह है कि परमात्मा की इच्छा है कि वह उसके संपूर्ण स्वरूप का ज्ञान प्राप्त करके आनंद की अनुभूति करे। उसे सच्चा आनंद तभी प्राप्त होगा, जब वह परमात्मा का ज्ञान प्राप्त कर ले। प्रभु ने अपनी इच्छा के अनुरूप मनुष्य को उपादान भी दिए हैं। जैसे अद्भुत शरीर, विलक्षण विवेक-बुद्धि। अपनी विवेक शक्ति को विकृतियों से मुक्त कर मनुष्य यदि प्रत्यक्ष संसार को एक गहरी अनुभूति से देखे, उसका चिंतन करे तो सहज ही वह परमात्मा के अस्तित्व का ज्ञान प्राप्त कर सकता है।
मनुष्य को आनंद की खोज करने की आवश्यकता नहीं है। परमात्मा की प्रकृति आनंद से ओतप्रोत है। मनुष्य को मात्र अपनी अनुभव शक्ति को प्रबुद्ध भर करना है। अनुभव शक्ति के प्रबोध के लिए उसे कोई विशेष तपस्या अथवा साधना नहीं करनी है। वह मात्र एक विस्मयमूलक दृष्टिकोण से उसकी रचना-संसार को देखे, उसे श्रेष्ठ शिल्पकार की परमरचना समझकर सम्मान करे, उसकी अनुभव शक्ति स्वत: प्रबुद्ध हो उठेगी। इतनी बड़ी रचना, इतनी महान कृति को उसने किस उद्देश्य, किस कारण से और किसके लिए निर्मित किया है? यह एक जटिल प्रश्न है, रहस्य है। यह सब एक उस ही परमात्मा ने अपने से, अपने में, अपने लिए ही उत्पन्न किया है। सृष्टि में हर ओर से ओत-प्रोत परमात्मा और परमात्मा में हर-प्रकार से समाहित यह संपूर्ण रचना, मनुष्य के समझने के लिए है। समझकर उस रचयिता का ज्ञान प्राप्त कर आनंद प्राप्ति के लिए है। नारी-पुरुष, पशु-पक्षी, वृक्ष-पौधे, फूल-फल जिसे भी निहारें, एक विस्मय और कौतूहल से देखता हुआ शिल्पकार की सराहना में गद-गद हृदय हुआ मनुष्य एक दिन किसी विशेष साधना के बगैर परमानंद का अवश्य अनुभव करेगा। अपने सहित सृष्टि के बाहर सच्चिदानंद परमात्मा का अस्तित्व कल्पना करने वाले जन्म-जन्मान्तर उसकी अनुभूति प्राप्त नहीं कर सकते। परमात्मा इस सृष्टि में ही है। सृष्टि में जो कुछ है, वह सब उसी का स्वरूप है, उसी का अस्तित्व है।
[ डॉ. विजय प्रकाश त्रिपाठी ]