हर्ष वी पंत

जून के अंत में आखिरकार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की मुलाकात होने जा रही है। दोनों नेता पहले से ही सोशल मीडिया और फोन के जरिये एक दूसरे के संपर्क में रहे हैं, लेकिन यह पहला मौका होगा जब वे आमने-सामने बैठकर बात करेंगे। यह दौरा कई मायनों में महत्वपूर्ण माना जा रहा है। अमेरिका में बदले निजाम के बाद उसकी कई नीतियों में नाटकीय बदलाव देखने को मिला है। ऐसे में मोदी का यह दौरा ट्रंप के दौर में अमेरिका को लेकर उनकी नीति में निर्णायक साबित हो सकता है। ट्रंप को लेकर भारत का उत्साह पहले ही कई चरणों से गुजर चुका है। इसका आगाज तब हुआ जब अमेरिका में राष्ट्रपति पद के लिए उम्मीदवार बनने की प्रक्रिया चल रही थी। ट्रंप ने रिपब्लिकन पार्टी से जुड़े कश्मीरी पंडितों और आतंक पीड़ित बांग्लादेशी हिंदुओं द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में हिस्सा लिया। उन्होंने भारत को ‘प्रमुख रणनीतिक साझेदार’ करार देते हुए कहा था कि अगर वह राष्ट्रपति बनते हैं तो भारत-अमेरिका ‘घनिष्ठ मित्र’ बनेंगे और दोनों का एक साथ ‘शानदार भविष्य’ होगा। इस्लामिक चरमपंथ और पाकिस्तान को लेकर उनके सख्त रवैये ने भी भारतीयों के एक वर्ग में उनकी लोकप्रियता बढ़ाई। नौकरशाही को दुरुस्त कर एवं आर्थिक सुधारों के जरिये भारत को तेज वृद्धि के पथ पर अग्र्रसर करने के लिए उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी की सराहना भी की। ट्रंप ने खुद को ‘हिंदुत्व का बड़ा प्रशंसक’ और खुद को भारत का मुरीद बताकर अमेरिका में बसे भारतीयों के वोट हासिल करने के लिए ‘अबकी बार, ट्रंप सरकार’ का नारा भी दिया।
मगर राष्ट्रपति बनने के बाद उनके तेवर खासे बदल गए। उनके मिले-जुले संकेत और प्राथमिकताओं ने भारत में भी तमाम लोगों को दुविधा डाला है। हालांकि उनके सहयोगियों ने आतंक को लेकर पाकिस्तान को अक्सर कड़े संदेश ही दिए हैं, लेकिन उनका रवैया अस्थिर ही रहा है। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के साथ फोन पर बातचीत में उन्होंने कहा कि वह पाकिस्तान की मौजूदा समस्याओं को सुलझाने के लिए कोई भी भूमिका निभाने को तैयार हैं। शरीफ के बारे में ट्रंप ने कहा कि उनकी छवि काफी अच्छी है और वह बेहतरीन काम कर रहे हैं जो नजर भी आ रहा है। अपने शेखी बघारने वाले मशहूर अंदाज में ट्रंप ने कथित तौर पर पाकिस्तान की तारीफों के पुल भी बांधे।
संयुक्त राष्ट्र में अमेरिकी राजदूत निक्की हेली ने तो यहां तक कहा कि इस्लामाबाद और नई दिल्ली के बीच रिश्तों में बढ़े तनाव को कम करने में अमेरिका सक्रिय भूमिका निभा सकता है। हालांकि अमेरिकी विदेश विभाग ने बाद में इसे खारिज कर दिया। इसी तरह जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते से अमेरिका यह कहते हुए पीछे हट गया कि इसकी वजह से उस पर आर्थिक बोझ बढे़गा और यह उसकी संप्रभुता में दखल देने वाला है। इसके लिए विशेष रूप से भारत को निशाना बनाते हुए ट्रंप ने दलील दी कि भारत अरबों डॉलर की विदेशी मदद के बाद ही इसमें भागीदारी कर रहा है और उसे 2020 तक अपना कोयला उत्पादन दोगुना बढ़ाने की इजाजत भी है। भारत ने तुरंत इन आरोपों को खारिज भी कर दिया और विदेश मंत्री सुषमा स्वराज ने कहा कि भारत ने इस पर किसी ‘लालच या भय’ के कारण हस्ताक्षर नहीं किए हैं, बल्कि पर्यावरण के प्रति उसकी प्रतिबद्धता तो 5,000 साल पुरानी है। आर्थिक एवं व्यापारिक रिश्ते भी दबाव में हैं जहां ट्रंप ने संघीय एजेंसियों से अस्थाई वीजा कार्यक्रम की समीक्षा करने के लिए भी कहा है। ट्रंप एच-1बी वीजा के भी बड़े आलोचक रहे हैं जिनके बारे में उनका खयाल है कि आउटसोर्सिंग कंपनियां इसका इस्तेमाल कम कौशल वाले कामगारों को कम मेहनताने पर रखकर अमेरिकियों की अनदेखी कर रही हैं। आर्थिक भूमंडलीकरण को लेकर उनके व्यापक नजरिये ने विरोधाभासी तस्वीर ही पेश की है जहां चीन खुद को वैश्विक नेता के तौर पर पेश करने में कुछ सफल होता भी दिख रहा है।
क्षेत्रीय सुरक्षा और सामरिक मसलों पर भी अभी तक अस्पष्ट संकेत ही देखने को मिले हैं। ट्रंप प्रशासन अभी तक यह तय नहीं कर पाया है कि अफगानिस्तान में जंग के लिए उसे कितने सैनिक तैनात करने हैं। अमेरिकी रक्षा मंत्री जिम मैटिस ने सीनेट की सैन्य सेवा समिति को अभी हाल में ही बताया कि हम अफगानिस्तान में जीतने नहीं जा रहे हैं और पूरे देश में तालिबान का फिर से उभार हो रहा है। यह स्पष्ट है कि पेंटागन अधिकारी और काबुल में सैन्य नेतृत्व जंग के लिए और सैनिकों की तैनाती का पक्षधर है। अफगानिस्तान में अमेरिका के शीर्ष कमांडर जनरल जॉन निकोल्सन ने इस साल की शुरुआत में वहां हालात को ‘डांवाडोल’ बताया था और कहा था कि उनके पास हजारों सैनिकों की किल्लत है। ट्रंप के सैन्य एवं असैन्य सलाहकारों के बीच असहमति के चलते इस पर फैसला लटका हुआ है। असल में यह ट्रंप की चीन नीति है जिसका भारत और क्षेत्रीय भूराजनीति पर दीर्घावधिक प्रभाव होगा। एक चीन नीति पर ताइवान को लेकर सवाल उठाकर चीन को नाराज करने के बाद ट्रंप बाद में उसके समर्थन में आ गए। इस साल अप्रैल में ट्रंप ने चीनी राष्ट्रपति की मार-ए-लागो सम्मेलन में मेजबानी की जहां उन्होंने उत्तर कोरिया पर दबाव बनाने के लिए चीन को अपने पाले में लेने की भरपूर कोशिश की। बाद में उन्होने शी चिनफिंग में पूरा भरोसा जाहिर करते हुए कहा कि वह उत्तर कोरिया मसले का समाधान करने के लिए पुरजोर कोशिश करेंगे। इसके बावजूद उत्तर कोरिया तुनकमिजाज बना हुआ है और वाशिंगटन में चीन को लेकर खीझ बढ़ रही है। वहीं दुनिया भर में यही चिंता बढ़ रही है कि जहां ट्रंप अमेरिका का दायरा सिकोड़ रहे हैं, इसके साथ ही वह चीन के लिए रणनीतिक विस्तार की गुंजाइश भी बना रहे हैं।
कुल मिलाकर ट्रंप प्रशासन में भारत-अमेरिकी रिश्तों के भविष्य की तस्वीर को लेकर खासी दुविधा बनी हुई है। रिश्ते मजबूत बनाने में मोदी की तमाम कोशिशों से वे परवान चढ़ते देखे गए। वह दावा कर सकते हैं कि उनके नेतृत्व में भारत-अमेरिकी रिश्तों में पुरानी हिचक अतीत की बात रह गई और पिछली सरकार के दौरान ऊहापोह वाली स्थिति से आखिरकार मुक्ति मिली। मोदी ने अमेरिका के साथ भारत की सक्रियता बढ़ाने के लिए रूढ़िवादी भारतीय नौकरशाही को नया कलेवर और मकसद दिया। वहीं अब मोदी के सामने ऐसी सरकार के साथ मेलजोल बढ़ाने की चुनौती है जो वैश्विक राजनीति से किनारा करते हुए लेनदेन या मोलभाव के एजेंडे पर काम कर रही है। जॉर्ज डब्ल्यू बुश और बराक ओबामा के दौर में भारत की ओर अमेरिकी झुकाव का आधार यही था कि भारत का उभार अमेरिका के व्यापक हितों में है, मगर ट्रंप के दौर में भारत-अमेरिका रिश्तों के लिए केवल इसी पहलू को आधार नहीं माना जा सकता। इसमें एक चुनौती यह भी है कि नई दिल्ली उसी व्यापक रणनीतिक तर्क की आदी हो चुकी है और परंपरागत रूप से लेनदेन संबंधी रिश्तों को लेकर प्रतिकूल रही है। बहरहाल इसमें नए अवसर तभी तैयार होंगे जब भारतीय नीति निर्माता नई संभावनाओं को लेकर खुला रुख अपनाएंगे। अगर अपने दौरे में मोदी ट्रंप को यह संदेश देने में सफल रहते हैं तो वह अपनी महारत पर पुख्ता मुहर लगाने में कामयाब होंगे।
[ लेखक लंदन स्थित किंग्स कॉलेज में इंटरनेशनल रिलेशंस के प्रोफेसर हैं ]