यूनिवर्सल बेसिक योजना के अंर्तगत देश के हर नागरिक को जीविका के लिए रकम हर माह सरकार द्वारा दी जाएगी। आज पूरे विश्व में रोजगार घट रहे हैं। आटोमैटिक मशीनों ने मजदूरों के तथा कंप्यूटरों ने शिक्षितों के रोजगार छीन लिए हैं। रोजगार के माध्यम से जीविकोपार्जन करना लगभग असंभव हो जा रहा है। ऐसे में हर नागरिक को एक न्यूनतम रकम उपलब्ध करा दी जाए तो रोजगार के अभाव में भी वह जीवनयापन कर सकेगा। देश के 20 करोड़ परिवारों को ऐसी रकम उपलब्ध कराना कठिन दिखता है, परंतु ऐसा नहीं है। सरकार के द्वारा जनकल्याण के नाम पर तमाम अधकचरी योजनाओं पर भारी रकम खर्च की जा रही है। यह रकम मूल रूप से सरकारी कर्मियों के वेलफेयर माफिया को पोषित करने में खर्च की जा रही है। इन योजनाओं को बंद कर दिया जाए तो यूनिवर्सल बेसिक इनकम के लिए वर्तमान बजट में ही रकम उपलब्ध हो जाएगी।
वित्त मंत्रालय द्वारा जारी इंडियन पब्लिक फाइनेंस स्टैटिस्टिक्स के अनुसार वर्ष 2014-2015 में केंद्र द्वारा जन कल्याण के निम्न खर्च किए गए। शिक्षा में 81 हजार करोड़ रुपये, स्वास्थ्य में 24, परिवार कल्याण 13, आवास 23, शहरी विकास 14, ग्रामीण विकास 119, फर्टिलाइजर सब्सिडी 73 और फूड कार्पोरेशन ऑफ इंडिया यानी सार्वजनिक वितरण प्रणाली में 115 हजार करोड़ रुपये। इनका योग 462 हजार करोड़ रुपये हुआ। महंगाई को जोड़ लें तो वर्ष 2016-17 में यह लगभग 530 हजार करोड़ रु. बैठेगा। इन रकम में दो प्रकार के खर्च शामिल हैं। जैसे शिक्षा के क्षेत्र में केंद्रीय परीक्षा व्यवस्था को चलाने का खर्च तथा स्कूलों तथा यूनिवर्सिटियों में शिक्षा प्रदान करने का खर्च, दोनों शामिल है। इनमें परीक्षा का कार्य सरकार को ही करना होगा। इसका प्राइवेट विकल्प नहीं है। परंतु केंद्रीय विद्यालयों तथा विश्वविद्यालयों में युवाओं को सरकार द्वारा शिक्षा देना जरूरी नहीं है। वे शिक्षा को प्राइवेट स्कूल में हासिल कर सकते हैं। यूनिवर्सल बेसिक इनकम के अंतर्गत इन्हें राशि मिल जाए तो वे अच्छे प्राइवेट स्कूल की फीस अदा कर सकते हैं। शिक्षा उपलब्ध कराने के कार्य से सरकार को मुक्त किया जा सकता है। मेरा अनुमान है कि उपरोक्त 530 हजार करोड़ के खर्च में 10 प्रतिशत परीक्षा जैसे जरूरी कार्यों के लिए किए जाते हैं। इन खर्चों को बरकरार रखें और शेष सभी को रद्द कर दें तो 480 करोड़ रु. उपलब्ध हो सकते हैं। देश के 20 करोड़ परिवारों में इस रकम को वितरित कर दिया जाए तो हर परिवार को 24,000 रुपये प्रति वर्ष या 2,000 रुपये प्रति माह दिए जा सकते हैं। इस रकम से लोग शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवार कल्याण, फर्टिलाइजर, खाद्यान्न आदि की व्यवस्था कर सकते हैं। इस रकम को हासिल करने के लिए उन्हें मनरेगा जैसे फर्जी कार्यक्रम में अपना समय बर्बाद नहीं करना होगा। वे दूसरे कार्यों से कमाई भी कर सकते हैं।
ऊपर बताई गई गणित में देश के सभी 20 करोड़ परिवारों को यह रकम दी जाएगी। इसमें टाटा बिड़ला भी शामिल हैं। प्रश्न है कि इन अमीरों को यह रकम दी जानी चाहिए या नहीं? सभी नागरिकों को इस रकम को उपलब्ध कराने में लाभ है कि लाभार्थी के चयन से देश मुक्त हो जाएगा। गांधीजी ने दलितों के लिए अलग चुनाव क्षेत्रों की मांग का यह कहकर विरोध किया था कि इनसे दलित पर सदा के लिए ‘दलित’ का ठप्पा लग जाएगा। यह बात बीपीएल और एपीएल के विभाजन पर भी लागू होती है। रकम केवल बीपीएल को उपलब्ध कराने पर गरीब पर सदा के लिए ‘बीपीएल’ का ठप्पा लग जाएगा। जनता में गरीब अमीर का विभाजन बना रहेगा। समाज में गरीब बनने की होड़ मचेगी। अत: यह रकम समभाव से देश के सभी नागरिकोें को दी जानी चाहिए। उच्च आय के लोगों पर टैक्स के माध्यम से इसे वापस वसूल कर लेना चाहिए। सरकार को अध्ययन कराना चाहिए कि बाजार में किन माल का उपभोग निचले 50 प्रतिशत लोगों के द्वारा किया जाता है और किन माल का उपभोग ऊपरी 50 प्रतिशत लोगों के द्वारा अधिक किया जाता है। मान लीजिए ऊपरी 50 प्रतिशत जनता द्वारा चाकलेट, पेट्रोल, महीन कपड़ा, बड़े टीवी आदि अधिक खरीदे जाते हैं। इन पर टैक्स की दर बढ़ाकर उन उपभोक्ताओं को बेसिक इनकम के रूप में दी जा रही रकम को वापस वसूल किया जा सकता है। अथवा इनकम टैक्स की दर बढ़ाई जा सकती है। टैक्स की दरें बढ़ाने को ऊपरी वर्ग का विरोध नहीं होगा। एक हाथ से इन्हें यूनिवर्सल बेसिक इनकम की रकम मिलेगी तो दूसरे हाथ से पेट्रोल की खरीद के माध्यम से वह रकम निकल जाएगी। इन पर अतिरिक्त बोझ नहीं पड़ेगा। इस प्रक्रिया से सभी देशवासियों को दी जाने वाली रकम दो गुनी की जा सकती है। ऊपर बताया गया है कि वर्तमान में चल रहे जनकल्याण के कार्यक्रमों को रद करके 480 हजार करोड़ रुपये प्रति वर्ष की बचत की जा सकती है। इतनी ही रकम ऊपरी 50 प्रतिशत नागरिकों से पेट्रोल आदि पर टैक्स बढ़ाकर वसूल कर ली जाए तो कुल 960 हजार करोड़ की रकम उपलब्ध हो जाएगी। इससे हर परिवार को 48,000 रुपये प्रति वर्ष या 4,000 रुपये प्रति माह की रकम दी जा सकती है। सरकार के बजट पर एक रुपये का भी अतिरिक्त बोझ नहीं पड़ेगा।
इस सुझाव को लागू करने में जीएसटी आड़े आएगी। जीएसटी के पीछे मूल सोच एक ही दर से सभी माल पर टैक्स आरोपित करने की है, जिससे टैक्स प्रणाली का सरलीकरण हो जाए। इस सरलीकरण से आर्थिक विकास को गति मिलेगी। आर्थिक विकास की इस गति से निचले 50 प्रतिशत नागरिकों को कुछ लाभ होगा। परंतु अनुभव बताता है कि आर्थिक विकास के लाभ ऊपरी वर्गों को ज्यादा मिलते हैं और निचला वर्ग बैरंग रह जाता है। अत: सरकार को निर्णय लेना होगा कि यूनिवर्सल बेसिक इनकम के माध्यम से निचले नागरिकों को सीधे एवं स्पष्ट रूप से मदद पहुंचानी है अथवा जीएसटी के संदिग्ध और घुमावदार रास्ते से। मेरे अनुसार सरकार को सीधा और स्पष्ट रास्ता लेना चाहिए। परिवार को 4,000 रुपये प्रति माह की बेसिक इनकम देनी चाहिए। इस योजना को लागू करने का खर्च वर्तमान बजट में ही संपन्न हो जाएगा। इसके लिए जीएसटी की 18 प्रतिशत एवं 28 प्रतिशत की दरों को बढ़ाकर 22 प्रतिशत एवं 35 प्रतिशत कर देना चाहिए। बढ़ी हुई टैक्स की आय से यूनिवर्सल बेसिक इनकम योजना को पोषित करना चाहिए।
यूनिवर्सल बेसिक इनकम प्रस्ताव का मुख्य विरोध नौकरशाही द्वारा किया जाएगा। वर्तमान में जनकल्याण के नाम पर खर्च की जा रही विशाल धनराशि मुख्य रूप से नौकरशाही को पोषित करने में लग रही है। निरीह बच्चों को फेल कराने के लिए सरकारी टीचरों को 50,000 रुपये प्रतिमाह वेतन दिया जा रहा है। इन तमाम फर्जी कार्यक्रमों को रद करने से इन नौकरशाहों को नुकसान होगा। इसका उपाय है कि इन कार्यक्रमों को धीरे-धीरे समाप्त किया जाए। वर्तमान कार्यक्रमों को मौजूदा स्तर पर फ्रीज कर दिया जाए। जैसे जैसे वर्तमान सरकारी कर्मी रिटायर होते हैं, इस रकम को यूनिवर्सल बेसिक इनकम में हस्तांतरित कर दिया जाए। याद रखें कि मनरेगा को प्रारंभ में देश के कुछ हिस्सों में ही लागू किया गया था। इसी क्रम में यूनिवर्सल बेसिक इनकम को पहले न्यून स्तर पर लागू किया जा सकता है। जनता इस योजना का खुले दिल से स्वागत करेगी। इस योजना का समय आ गया है इसलिए इसे लागू करना चाहिए। सरकार के इस सद्विचार का पुरजोर समर्थन किया जाना चाहिए।
[ लेखक डॉ. भरत झुनझुनवाला, आर्थिक मामलों के विशेषज्ञ हैं और आइआइएम बेंगलुरु में प्रोफेसर रह चुके हैं ]