[ अशोक वाजपेयी ]
सत्य सदैव एकरूप में स्थित रहता है। वह कभी परिवर्तित नहीं होता। सदैव शाश्वत बना रहता है। अर्थात जो अपरिवर्तनशील है वही सत्य है और वह समस्त देहधारियों में आत्मा के रूप में विद्यमान रहता है। परमात्मा ने सारे जगत को धारण कर रखा है और सारा जगत उसी के भीतर व्याप्त है। वह सभी शरीरों के अंदर है, फिर भी भी कोई उसे जान नहीं पाता। ऐसा इसलिए कि उसी की सत्ता से सारे शरीर प्रकाशमान होते हैं। उसी चेतन सत्ता के कारण मन-बुद्धि और इंद्रियां क्रियाशील होती हैं। सभी शरीरधारियों में मानव देह ही मात्र साधन धाम कहलाता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि समस्त शरीरों में चाहे वह मनुष्य का हो अथवा किसी अन्य का सभी में आहार, निद्रा, भय और मैथुन एक समान रूप से स्थित रहते हैं, लेकिन मनुष्य को ईश्वर ने एक अन्य अतिरिक्त गुण भी प्रदान किया है, वह है विवेक। परमात्मा ने मनुष्य को प्रधानता प्रदान करते हुए उसे विवेकशील प्राणी बनाया है। जो व्यक्ति अपने विवेक का प्रयोग कर सार-आसार का भेद करता हुआ विश्वरूप परमात्मा की शरण में जाता है वह ईश्वर की कृपा रूपी प्रसाद को प्राप्त कर उस परम सत्य का साक्षात्कार कर लेता है। दूसरी ओर ईश्वर रचित माया (प्रकृति) चंचल, अनित्य और परिवर्तनशील है। इसमें नित्य एकरूपता नहीं रहती। सदैव परिवर्तन की क्रिया चलती रहती है। पंच तत्वों आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी से निर्मित मनुष्य के शरीरों का संश्लेषण मां के गर्भ में होता है। इन्हीं पांचों तत्वों से निर्मित मनुष्य के शरीरों में सतत परिवर्तन होता रहता है। वह बालक से किशोर, जवान और फिर अधेड़ होते हुए वृद्ध हो जाता है। अंत में उसी शरीर का अपने-अपने तत्वों में विलीनीकरण हो जाता है। इसी प्रकार ऋतुओं में भी समयानुसार परिवर्तन होता रहता है। गर्मी बरसात में, बरसात जाड़े में जाड़ा पुन: गर्मी में परिवर्तित हो जाता है।
बीज वृक्ष बनता है। वृक्ष में अनेक शाखाएं फूट जाती हैं। उसमें फूल आता है। फूल से फल निकलते हैं। अंत में उसी वृक्ष से फिर बीज बनता है। यही प्रकृति की नियति है। जो वस्तु पहले नहीं थी, बीच में दृष्टिगोचर प्रतीत होती है और अंत में फिर नहीं रहती वही असत्य है। जो पहले भी थी, अभी भी है और अंत में भी रहेगी वही सत्य है। उसी सत्य का अनुगमन कर हमें संसार के समस्त कार्यों को संपादित करते रहना चाहिए।