राजीव मिश्र

साल 2019 के लोकसभा चुनाव के पूर्व राष्ट्रपति के चुनाव को लेकर विपक्षी दल सक्रिय हो गए हैं। वे तो चुनाव में भाजपा गठबंधन को कड़ी टक्कर देने के लिए महागठबंधन बनाने की तैयारी में भी जुट गए हैं। उनकी यह कवायद राष्ट्रपति चुनाव को न सिर्फ दिलचस्प बना रही है, बल्कि भाजपा विरोधी दलों के टूटे हुए मनोबल को थोड़ा प्रोत्साहित भी कर रही है। 25 जुलाई, 2017 से पहले राष्ट्रपति का चुनाव हो जाना है। जाहिर है इसीलिए महागठबंधन बनाने की मंशा को लेकर गतिविधियां तेज हो चली हैं, लेकिन सवाल यह है कि वोट के गणित में भाजपा गठबंधन के आगे विरोधी गठबंधन टिकेगा कैसे? उत्तर प्रदेश में जीत के बाद भाजपा गठबंधन के पास अब 5,31,954 वोट हैं जो राष्ट्रपति का चुनाव जीतने के लिए जरूरी वोट से मात्र 17,488 कम हैं। भाजपा गठबंधन प्रत्याशी को जीत के लिए 5,49,442 वोटों की आवश्यकता होगी। अगर अन्नाद्रमुक और बीजू जनता दल के वोटों को जोड़ दें तो भाजपा गठबंधन के वोटों की संख्या 6,28,195 हो जाएगी।
अन्नाद्रमुक के 134 विधायकों का वोट मूल्य 23,584 और उनके राज्यसभा तथा लोकसभा के 50 सांसदों का वोट मूल्य 35,400 है। इसी प्रकार बीजू जनता दल के सांसदों एवं विधायकों का वोट मूल्य 37,257 है। उत्तर प्रदेश में जीत के बाद भाजपा की स्थिति इसलिए भी काफी मजबूत हो गई, क्योंकि विधायक के वोट का मूल्य प्रदेश की जनसंख्या के आधार पर निश्चित होता है। उत्तर प्रदेश के एक विधायक के वोट का मूल्य भारत में सर्वाधिक 208 है, जबकि सिक्किम के एक विधायक के वोट का मूल्य न्यूनतम यानी सिर्फ सात है।
अब अगर भाजपा विरोधी महागठबंधन बनाने की कवायद को करीब से देखा जाए तो स्थिति काफी उलझी हुई दिखाई देती है। सपा-बसपा को जोड़ना या तृणमूल कांग्रेस और वामपंथी दलों का एक साथ आना या फिर द्रमुक और अन्नाद्रमुक को एक प्लेटफॉर्म पर लाना क्या संभव है? सोनिया गांधी के साथ शरद पवार, सीताराम येचुरी, नीतीश कुमार और शरद यादव ने महागठबंधन का एक ‘रोड मैप’ बनाया है। सवाल यह है कि कांग्रेस ने सपा के साथ मिलकर उत्तर प्रदेश में चुनाव लड़ा तो फिर बसपा इस गठबंधन में सहज कैसे रहेगी? वहीं पश्चिम बंगाल में कांग्रेस ने वाम दलों के साथ चुनाव लड़ा तो फिर तृणमूल कांग्रेस इस गठबंधन में कैसे शामिल हो पाएगी। वहीं तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक और द्रमुक की लड़ाई ‘सांप तथा नेवले’ वाली रही है तो फिर इन दोनों दलों का एक प्लेटफॉर्म पर आना कैसे संभव हो सकता है? इस तरह की परिस्थितियां और भी कई राज्यों में हैं।
इधर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी कोई कच्चे खिलाड़ी तो हैं नहीं, वह राजनीतिक तौर पर अप्रत्याशित और लीक से हटकर फैसला लेने में माहिर रहे हैं। ऐसे में भाजपा गठबंधन के लिए राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी कौन हो सकता है? क्या मोदी यहां भी कोई अप्रत्याशित कदम उठाएंगे? 25,893 मतों वाली शिवसेना द्वारा संघ प्रमुख मोहन भागवत को प्रत्याशी बनाने की मांग को स्वयं भागवत ठुकरा चुके हैं। शिवसेना द्वारा शरद पवार को राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनाने की मांग में भी कोई दम नहीं है। लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी बाबरी मस्जिद के मामले में उलझे हैं। उधर भाजपा गठबंधन को 17,488 अतिरिक्त मतों की आवश्यकता भी है। ऐसे में क्या मोदी कोई तुरुप का पत्ता फेंक सकते हैं? क्या कोई अनुसूचित जनजाति का व्यक्ति भाजपा गठबंधन की तरफ से राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार हो सकता है? भारत में ऐसा पहली बार होगा जब कोई अनुसूचित जनजाति का व्यक्ति राष्ट्रपति बनेगा। दूसरी तरफ एक सवाल यह भी है कि क्या अनुसूचित जनजाति के राष्ट्रपति उम्मीदवार का कोई राजनीतिक दल विरोध करेगा?
वैसे शिवसेना दो बार भाजपा गठबंधन में रहते हुए भी विरोधी गठबंधन के उम्मीदवार को अपना मत दे चुकी है। 2007 में प्रतिभा पाटिल और 2012 में प्रणव मुखर्जी को शिवसेना का मत मिला था। इसलिए भाजपा अन्नाद्रमुक और बीजू जनता दल के साथ-साथ जगनमोहन रेड्डी और के. चंद्रशेखर राव की पार्टी के साथ भी गठजोड़ बनाने में लगी है। हालांकि गठबंधन से अलग होकर राष्ट्रपति चुनाव में मत देने के मामले में नीतीश कुमार भी आगे रहे हैं। पिछले राष्ट्रपति चुनाव में भाजपा गठबंधन में शामिल रहने के बावजूद जदयू का मत प्रणव मुखर्जी को मिला था। तो क्या अनुसूचित जनजाति के किसी व्यक्ति को भारत का राष्ट्रपति बनाए जाने के मामले में गठबंधन का आदेश तोड़कर मत दिए जाने की बात नहीं होगी? भाजपा गठबंधन के प्रत्याशी को वोट नहीं देने के पीछे विभिन्न राजनीतिक दलों का तर्क क्या होगा? क्या वे असमंजस में नहीं होंगे? ऐसे में क्या उनकी तरफ से भी अनुसूचित जनजाति का उम्मीदवार खड़ा किया जा सकता है?
यह संभावित है। वैसे भी राजनीति संभावनाओं का खेल ही तो है, परंतु यह तो मानना ही होगा कि नरेंद्र मोदी न सिर्फ लीक से हटकर निर्णय लेते हैं, बल्कि इसकी वकालत भी करते हैं। पिछले महीने ‘सिविल सर्विसेज डे’ पर आयोजित समारोह में मोदी ने नौकरशाहों को लीक से हटकर सोचने का सुझाव दिया और ‘रेग्यूलेटर’ के बजाय ‘इनेबलर’ बनने की नसीहत दी। पिछले तीन सालों में मोदी ने ऐसे कई निर्णय लिए हैं जिन्हें न सिर्फ ऐतिहासिक, बल्कि अप्रत्याशित भी कहा जा सकता है। मोदी और उनके निकट सहयोगी पिछले कई महीनों से राष्ट्रपति पद को लेकर संभावित प्रत्याशी की खोज में लगे हैं और राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार चयन में राजनीतिक फायदे-नुकसान के साथ-साथ विरोधी गठबंधन में बिखराव पर भी उनकी नजर है।
उधर सोनिया गांधी की बढ़ती सक्रियता और सीताराम येचुरी की बीजू जनता दल के प्रमुख से मुलाकात कहानी को रोमांचक बना रही है। उम्मीदवारी को लेकर मोदी और अमित शाह की सहयोगी दलों के साथ औपचारिक मुलाकात अगले महीने संभावित है और न सिर्फ शिवसेना का रुख टटोलने की लगातार कोशिश हो रही है, बल्कि बाकी सहयोगी दलों से भी इस मामले में संपर्क बढ़ाया गया है। इस तरह उनका लक्ष्य अपने सहयोगी दलों को मजबूती से जोड़े रखने के साथ-साथ अन्य दलों को भी इस मामले में हमकदम बनाने का है। इसमें संदेह नहीं कि इस वर्ष होने वाला राष्ट्रपति का चुनाव न सिर्फ दिलचस्प होगा, बल्कि भारतीय राजनीति की दिशा और दशा तय करेगा।
[ लेखक ओईटी इंफोटेनमेंट के प्रबंध निदेशक हैं ]