समता और संतुलन
सफल जीवन के लिए समता और संतुलन का अभ्यास जरूरी है। समता और संतुलन की साधना करने वाला व्यक्ति द्वंद्वात्मक स्थितियों में प्रभावित नहीं होता।
सफल जीवन के लिए समता और संतुलन का अभ्यास जरूरी है। समता और संतुलन की साधना करने वाला व्यक्ति द्वंद्वात्मक स्थितियों में प्रभावित नहीं होता। श्रीकृष्ण कहते हैं कि हे अर्जुन! जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा रखता है वह कर्मयोगी सदा संन्यासी ही समझने योग्य है। राग-द्वेष द्वंद्वों से रहित पुरुष सुखपूर्वक संसार बंधन से मुक्त हो जाता है। एक साधक के मन में कभी उतार-चढ़ाव और कभी राग-द्वेष के भाव आ सकते हैं, किंतु जिसमें राग-द्वेष का भाव आता रहता है वह साधक नहीं होता। सच्चे साधक की भूमिका वह होती है जहां आकांक्षा और द्वेष दोनों छूट जाते हैं। जो आशा के पाश से जकड़े हुए हैं वे साधक कहलाने के योग्य नहीं होते। गीता के अनुसार आकांक्षा पूर्णतया न भी छूट पाए तो वह कम से कम हो जाए। गृहस्थ लोगों के लिए भी इच्छा का कम से कम होने का अभ्यास जरूरी है। अधिक पैसा प्राप्त करने की इच्छा रखने वाला व्यक्ति यह चिंतन करे कि मुझे दाल-रोटी मिल रही है, रहने की व्यवस्था अच्छी है, आवश्यकताओं की पूर्ति हो रही है, फिर मैं पैसे के पीछे क्यों भागूं? अब मैं साधना करूं। यही इच्छा का नियंत्रण है।
प्राचीन संस्कृत साहित्य में तो यहां तक कहा गया है कि जितने से पेट भर जाए उतना संग्रह तो पास में रखना आदमी का अधिकार है उससे ज्यादा कोई रखता है तो वह चोर है। सारांश यह है कि संग्रह मत करो और ज्यादा इच्छा मत रखो। जिसमें समता और संतुलन का विकास हो गया और जो निद्र्वंद्व हो गया यानी प्रियता-अप्रियता और आकांक्षा-द्वेष इन द्वंद्वों से जो मुक्त हो गया वह बंधन से मुक्त हो जाता है। जिसने समत्व का अभ्यास कर लिया उससे बड़ा और क्या योग अभ्यास हो सकता है। कितने ही प्राणायाम कर लिए जाएं, कितना ही ध्यान कर लिया जाए, किंतु समता से बढ़कर कोई योग नहीं हो सकता। प्रसन्नता को प्राप्त करने के लिए समता और संतुलन का होना अपेक्षित होता है। गीता में तीन योग बताए गए हैं-कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्ति योग। ज्ञान का अभ्यास करते-करते समता का शिखर प्राप्त हो सकता है। भक्ति का अभ्यास करते-करते समता की परम भूमिका पर आरोहण हो सकता है। और निष्काम भाव से सेवा करते-करते समता की सर्वोच्च भूमिका प्राप्त हो सकती है। इस त्रि-योग से जीवन को सफल और सार्थक बनाने का मार्ग भी प्रशस्त हो सकता है।
[ ललित गर्ग ]