[ प्रदीप सिंह ]

बात उत्तर प्रदेश के विकास से शुरु हुई थी और गुजरात के गधों के प्रचार और कब्रिस्तान-श्मशान पर आकर ठहर गई है। चुनाव में भाषा का संयम वैसे भी टूट जाता है, लेकिन टूटने की भी एक सीमा और मर्यादा होती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के बयान को उनके विरोधियों ने धुवीकरण की कोशिश के रूप में देखा तो समर्थकों ने सरकारी नीतियों में धर्म और जाति के आधार पर भेदभाव के रूप में। सूबे के मुख्यमंत्री के बयान को उनके विरोधियों और समर्थकों के एक बड़े वर्ग ने भी मर्यादित व्यवहार की लक्ष्मण रेखा के उल्लंघन के रूप में देखा। यही बात राहुल गांधी ने कही होती किसी को एतराज या कहें कि अचरज नहीं होता। राहुल ऐसी भाषा के लिए जाने जाते हैं, लेकिन अखिलेश की जबान पांच साल में इस चुनाव अभियान से पहले कभी नहीं फिसली। यह उनका तीसरा सेल्फ गोल था, जो नुकसानदायी साबित हो सकता है, क्योंकि वह अरविंद केजरीवाल नहीं हैं। उत्तर प्रदेश की चुनावी हवा कह रही है कि प्रदेश का मतदाता स्पष्ट जनादेश की ओर बढ़ रहा है। जाहिर है कि जब तीन प्रमुख दलों में लड़ाई हो रही है तो दो को हारना ही है। चुनाव अभियान की शुरुआत में कांग्रेस से गठबंधन, साझा प्रेस कांफ्रेंस और रोड शो से पूरे प्रदेश में अखिलेश ही अखिलेश नजर आ रहे थे। इससे पहले वह पार्टी की अंदरूनी लड़ाई में टीपू से सुल्तान बन चुके थे। सब तरफ हरियाली नजर आ रही थी। खबरें थीं कि मुस्लिम मतदाता सपा-कांग्रेस गठबंधन का वैसा ही समर्थन करेगा जैसा बिहार में महागठबंधन का किया था। यह भी कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट भाजपा के खिलाफ हो गया है। भाजपा टिकट बंटवारे से उपजे असंतोष से लड़ने में उलझी हुई है। पार्टी का चुनाव प्रचार शुरु ही नहीं हो पा रहा। कुल मिलाकर प्रदेश भर में दो लड़कों की चर्चा थी। दोनों दलों ने मान लिया था कि यूपी को यह साथ पसंद है। दूसरी ओर 2007 में ब्राह्मणों के समर्थन से सत्ता में आने के बाद इस बार बहुजन समाज पार्टी की मुखिया मायावती ने दलित मुस्लिम गठजोड़ पर दांव लगाया। उन्हें लग रहा है कि उनके पास निन्यानबे रुपये हैं, बस एक रुपये की जरूरत है। उन्हें यह कठिन नहीं लग रहा था, क्योंकि उनकी नजर में अखिलेश और राहुल गांधी एक रुपया लेकर निन्याबे रुपये पा लेने का दावा कर रहे थे। आम धारणा बन रही थी कि भाजपा तीसरे नंबर पर जा रही है।
सपा-कांग्रेस और बसपा की राजनीति के इस स्थिर पानी में हलचल प्रधानमंत्री की पहली चुनावी सभा से हुई। भीड़ आई और खूब आई तो कहा गया कि अरे प्रधानमंत्री की सभा में भीड़ तो बिहार में भी खूब आती थी। वे यह भूल गए कि यह उत्तर प्रदेश है, बिहार नहीं। अखिलेश और राहुल का साथ लालू प्रसाद एवं नीतीश कुमार के साथ जैसा नहीं है। वहां दोनों की झोली में सामान था। यहां राहुल गांधी की झोली खाली है। कहते हैं कि कई बार बहादुरी और नासमझी में बहुत थोड़ा अंतर होता है। अखिलेश यादव गले में कांग्रेस नाम का पत्थर बांधकर तैरने को अपनी बहादुरी मान रहे हैं। यह उनकी नासमझी थी, इसका उन्हें अहसास भी होने लगा है। इस गठबंधन का लक्ष्य था कि मुस्लिम वोट बंटने न पाए, लेकिन पहले ही चरण के मतदान में मुस्लिम वोट बंट गया। दूसरे चरण में और बुरा हुआ। मुस्लिम वोट बंटने के बावजूद हिंदुओं में धु्रवीकरण हो गया। शायद इसकी जानकारी मिलने के बाद से ही अखिलेश यादव का वाक् संयम जाता रहा। पहले इटावा जाकर चाचा शिवपाल यादव और अपनी ही पार्टी के ठेकेदार समर्थकों को धमकाया। कहा अभी हमारी सरकार है, जो कमाया है उसकी शिकायत हो गई तो जांच करा दूंगा। उसके बाद बाराबंकी गए और नाम लिए बिना बेनी प्रसाद वर्मा को कृतघ्न बता दिया। कहा कि उन्हें राज्यसभा में भेजने के लिए पैंतीस विधायकों का समर्थन दिलाया और वे हमारे ही उम्मीदवार को हराने में लगे हैं। ये दोनों बयान इसकी स्वीकारोक्ति हैं कि पार्टी के वरिष्ठ नेता अपनी ही पार्टी के उम्मीदवारों को हराने में लगे हैं। मुलायम सिंह यादव छोटे भाई और छोटी बहू के अलावा अभी तक किसी अन्य सपा उम्मीदवार के चुनाव प्रचार में नहीं गए हैं।
चुनाव जैसे जैसे आगे बढ़ रहा है, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की सोशल इंजीनियरिंग का असर दिखाई दे रहा है। 1991 और 2014 के बाद पहली बार गैर यादव पिछड़े और समाज के दूसरे वंचित तबके भाजपा के पक्ष में लामबंद होते दिख रहे हैं। अमित शाह की चुनावी सभाओं में लोगों का उत्साह और मंगलवार को इलाहाबाद में उनके रोड शो को देखकर लगता है कि 2014 के चुनाव ने उन्हें गुजरात से बाहर भी प्रभावी संगठनकर्ता के रूप में स्थापित किया तो 2017 उन्हें जनाधार वाले नेता के रूप में स्थापित कर देगा। जिन्होंने बिहार में अमित शाह की चुनावी सभाएं देखी थीं उन्हें उत्तर प्रदेश में उन्हें देखकर यकीन नहीं होगा। उनकी सभाओं में केंद्र सरकार की उज्ज्वला योजना के तहत गरीबों को मुफ्त गैस चूल्हा और कनेक्शन और भाजपा सरकार बनते ही बूचड़ खाने बंद कराने की घोषणा पर सबसे ज्यादा तालियां बजती हैं। पूरा भाषण संवाद की शैली में होता है। इस सबका जिक्र इसलिए कि पिछले डेढ दो दशकों से भाजपा नेताओं की रैलियों में ऐसा दृश्य देखने को नहीं मिलता था।
उत्तर प्रदेश में चुनाव तो विधानसभा के लिए हो रहा है पर भाजपा की ओर से उसे लड़ रहे हैं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी। वही भाजपा का ट्रंप कार्ड हैं। भाजपा इस चुनाव में जीतेगी या नहीं, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि समाज के वंचित वर्ग में मोदी के प्रति जो आदर और स्नेह का भाव है उसे पार्टी वोट में बदलवा पाती है या नहीं? भाजपा ऐसा कर पाई तो यह चुनाव जातीय समीकरणों से परे जा सकता है। युवा मतदाताओं और समाज के वंचित वर्ग का भरोसा अभी मोदी पर बना हुआ है। पांच राज्यों का नतीजा तो 11 मार्च को आएगा, लेकिन ओडीशा के पंचायत चुनाव के नतीजे बता रहे हैं कि हवा किस ओर बह रही है। वहां भाजपा को जो वोट मिला है उससे भी अहम है कि किन वर्गों से मिला है। उत्तर प्रदेश विधानसभा के चुनाव की शुरुआत सपा-कांग्रेस गठबंधन बनाम भाजपा की मुख्य लड़ाई से शुरु हुआ था और पहले ही चरण के मतदान से वह भाजपा बनाम बसपा की लड़ाई में बदल गया। सपा पीछे क्यों चली गई? इसका जवाब दिया सपा के एक वरिष्ठ नेता ने। उन्होंने कहा कि ‘सपा अब भइया-भाभी की पार्टी बन गई है। पार्टी के किसी फैसले, रणनीति में मुलायम, शिवपाल, बेनी, रेवतीरमण या आजम खान शामिल नहीं हैं। सवर्णों में ब्राह्मण-बनिया पहले ही सपा को वोट नहीं देता था। पिछली बार ठाकुरों ने थोक में वोट दिया, लेकिन अखिलेश ने अपनी ही पार्टी के ठाकुर नेताओं को किनारे लगा दिया।’ क्या गांधी परिवार के बाद यादव परिवार का राजनीतिक दुर्ग ढ़हेगा? जवाब के लिए 11 मार्च तक इंतजार कीजिए।
[ लेखक वरिष्ठ स्तंभकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं ]