राजीव सचान। राजनीतिक दलों को चुनावी बांड के जरिये चंदा देने की व्यवस्था पर सुप्रीम कोर्ट ने विराम लगा दिया। सुप्रीम कोर्ट के आदेश से भारतीय स्टेट बैंक ने चुनावी बांड का जो विवरण सार्वजनिक किया, उसके अनुसार चुनावी बांड के जरिये सबसे अधिक चंदा भाजपा को मिला। यह स्वाभाविक है, क्योंकि वह केंद्र के साथ कई राज्यों में सत्ता में है। चंदा अन्य विरोधी दलों को भी मिला है, लेकिन वे ऐसा व्यवहार कर रहे हैं, जैसे उन्हें मिला चंदा तो जायज है, लेकिन जो भाजपा को मिला, वह नाजायज है।

चुनावी बांड के जरिये चंदा देने की व्यवस्था ने दो चिंताजनक पहलू उभारे हैं। एक यह कि कई ऐसी कंपनियों ने भी चंदा दिया, जिनके खिलाफ सीबीआइ, ईडी अथवा आयकर विभाग की जांच चल रही थी। चूंकि ऐसी कुछ कंपनियों को चंदा देने के आगे-पीछे ठेके भी मिले, इसलिए यह संदेह उभरा है कि कहीं केंद्रीय एजेंसियों के दबाव में तो इन कंपनियों ने अपनी जेब नहीं ढीली की? कांग्रेस ने तो यह कहने में संकोच भी नहीं किया कि चुनावी बांड के जरिये ‘चंदा दो-धंधा लो’ का खेल चल रहा था।

सच क्या है, यह जांच के बाद ही पता चलेगा, लेकिन क्या यह अच्छा नहीं होगा कि जिन दलों को चुनावी बांड के जरिये चंदा मिला और जो इस तरह से चंदे के लेन-देन को गलत मानते हैं, वे उसे वापस कर दें? खैर, दूसरा चिंताजनक पहलू यह है कि कुछ ऐसी कंपनियों ने भी चंदा दिया, जो घाटे में चल रही थीं। एक पहेली यह भी है कि चुनावी बांड से चंदा देने वालों में कुछ नामी कंपनियों के नाम नहीं दिखे। क्या यह मान लिया जाए कि उन्होंने किसी को चंदा दिया ही नहीं? जिन कुछ कंपनियों को लक्ष्य करके यह कहा जा रहा है कि भाजपा ने उनसे चंदा उगाही की, उन्होंने अन्य राजनीतिक दलों को भी चंदा दिया है। क्या उन्होंने भी चंदा उगाही की है?

चुनावी बांड के पहले चंदे की व्यवस्था पूरी तरह अपारदर्शी थी। तब ज्यादातर चंदा नकद दिया जाता था। तब दलों को 20 हजार रुपये से कम के चंदे का विवरण न बताने की छूट थी। इसके चलते कई दल यह बताते थे कि उन्हें करोड़ों का चंदा मिला तो, लेकिन वह सब 20-20 हजार रुपये से कम का यानी फुटकर ही था। कोई भी समझ सकता है कि यह सही नहीं हो सकता। पहले किसी को यह पता नहीं चलता था कि किसने किसको कितना चंदा दिया। यह मानकर चला जाना चाहिए कि इसके चलते राजनीतिक दलों को अच्छा-खासा कालाधन मिलता होगा।

चुनावी बांड की व्यवस्था खत्म होने के बाद से भारतीय राजनीति के फिर से कालेधन से संचालित होने की आशंका कहीं अधिक बढ़ गई है। लोकतंत्र का तकाजा यह कहता है कि जनता को यह पता चले कि किसने किसको कितना चंदा दिया, लेकिन इसकी कोई विश्वसनीय व्यवस्था बनाना आसान नहीं। इससे इन्कार नहीं कि चुनावी बांड की व्यवस्था जिस इरादे से लाई गई थी, वह पूरा नहीं हुआ, लेकिन आज कोई यह बताने वाला नहीं कि चुनावी चंदे की नीर-क्षीर व्यवस्था क्या हो सकती है? चुनावी चंदे की साफ-सुथरी प्रक्रिया का कोई कारगर सुझाव उनके भी पास नहीं, जो चुनावी बांड के विरोध में खड़े थे और अपनी जीत का जश्न मना रहे हैं।

चुनावी चंदे का एक तरीका यह हो सकता है कि कारोबारी अथवा कंपनियां अपनी आय का एक निश्चित प्रतिशत चुनाव आयोग को दें और फिर वह आयोग दलों को उन्हें मिले मत प्रतिशत के हिसाब से उनमें बांट दे, लेकिन यदि कोई अपने पसंदीदा दल को ही चंदा देना चाहे तो? कुछ कंपनियां ऐसी भी हो सकती हैं कि वे किसी को चंदा न देना चाहें। क्या उन्हें इसके लिए बाध्य किया जाएगा? चुनावी चंदे को लेकर यह एक सुझाव बार-बार आता है कि सरकारी खजाने से राजनीतिक दलों को चुनाव लड़ने के लिए पैसा मिले, लेकिन क्या इसके बाद दलों को सरकारी कोष से मिले धन से अधिक खर्च करने से रोका जा सकता है? क्या यह किसी से छिपा है कि एक बड़ी संख्या में प्रत्याशी अपने चुनाव प्रचार में तय सीमा से अधिक पैसा खर्च करते हैं।

वे खर्च करोड़ों में करते हैं, लेकिन कागजों में लाखों में ही दिखाते हैं। यह एक विडंबना ही है कि सभी इस पर तो जोर दे रहे हैं कि चुनावी चंदे की साफ-सुथरी व्यवस्था बने, लेकिन कोई भी यह नहीं कह रहा है कि इसके साथ ही ऐसी भी व्यवस्था बने, जिससे कोई भी सरकार अपने किसी पसंदीदा कारोबारी या कंपनी को नियम-कानूनों में ढील देकर ठेका न दे सके और न ही अपनी जांच एजेंसियों का दुरुपयोग कर उस पर अनुचित दबाव डाल सके। आखिर कौन नहीं जानता कि कुछ कारोबारी और कंपनियां किस तरह दल विशेष की सरकार में दिन दूनी-रात चौगुनी गति से प्रगति कर जाती हैं या फिर उनका बेड़ा गर्क हो जाता है? साफ है कि समस्या कहीं और है और समाधान कहीं और खोजा जा रहा है।

सुप्रीम कोर्ट ने चुनावी बांड की व्यवस्था इसलिए खत्म की, क्योंकि उसने पाया कि गोपनीयता के अधिकार से सूचना का अधिकार अधिक महत्वपूर्ण है, लेकिन इस अधिकार को खुद सुप्रीम कोर्ट कोई भाव नहीं देता और इसीलिए उच्चतर न्यायपालिका के जज अपनी संपत्ति का विवरण घोषित नहीं करते। इसे ही कहते हैं ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे।’ यदि आप राहुल गांधी नहीं हैं तो शायद यह मानते होंगे कि सारे कारोबारी चोर नहीं होते। आखिर ऐसे जिन कारोबारियों ने चुनावी बांड कानून के गोपनीयता वाले प्रविधान के तहत इस भरोसे चंदा दिया होगा कि उनका नाम सार्वजनिक नहीं होगा, उनका क्या दोष?

(लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडिटर हैं)