एनके सिंह

संयुक्त राष्ट्र की ताजा और पांचवीं विश्व खुशहाली रिपोर्ट के अनुसार पाकिस्तान हमसे ज्यादा खुश मुल्क है। वह चीन से मात्र एक अंक पीछे यानी 80 वें स्थान पर है। यहां तक कि उसने भूटान (97), नेपाल (99), बांग्लादेश (110) और श्रीलंका (120) को भी काफी पीछे छोड़ दिया है। भारत इन सबसे पीछे 122वें पायदान पर है। दरअसल हैप्पीनेस का हिंदी तर्जुमा भी गलत ही हुआ है। खुशहाली की जगह इसे ‘प्रसन्नता’ कहना चाहिए जो कि नितांत व्यक्तिगत अनुभव है। जिन छह पैमानों पर इसे मापा जाता हैं वे हैं-प्रति व्यक्ति सकल घरेलू आय, स्वस्थ जीवन प्रत्याशा, स्वतंत्रता, उदारता, संकट के दौरान मित्रों से मदद का भरोसा और सरकार के प्रति भरोसा। इस वैश्विक संस्था ने प्रसन्नता नापने की प्रक्रिया कुछ वर्ष पहले शुरू की थी और प्रत्येक वर्ष इसमें देशों की स्थिति बदलती रहती है। भारत इस साल चार अंक पीछे हो गया है, लेकिन यह कोई खास चिंता की बात नहीं है, क्योंकि अमेरिका भी 16 अंक गिरकर एक साल में तीसरे स्थान से लुढ़कते हुए 19 वें स्थान पर आ गया है और चीन भी वहीं पहुंच गया है जहां कुछ साल पहले था।
असल चिंता और हैरान करने वाली बात यही है कि आतंकवाद और जहालत का दंश झेलने वाले पाकिस्तानी हमसे ज्यादा खुश बताए गए हैं? हमारा जीडीपी भी पाकिस्तान से करीब नौ गुना ज्यादा है जबकि आबादी मात्र छह गुना। हम यहां 70 साल से प्रजातंत्र की छांव में जीने का दावा कर रहे हैं जबकि वहां 70 वर्षों में 32 साल फौजी शासन रहा है। इस सवाल को जानने के पहले कुछ और तथ्य जानने जरूरी हैं। रिपोर्ट इस बात पर जोर देती है कि प्रसन्नता मूल रूप से सामाजिक और व्यक्तिगत अहसास है। अपनी ‘एक्जीक्यूटिव समरी’ में रिपोर्ट का कहना है कि यह अहसास अधिकांशत: देश के भीतर पैदा होने वाली विसंगतियों पर निर्भर करता है। गरीब मुल्कों में गरीब-अमीर की खाई कम होने से वहां प्रसन्नता का भाव अधिक होता है। धनी देशों में यह खाई इतनी अधिक नहीं है लिहाजा वहां शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य और व्यक्तिगत संबंध इस प्रसन्नता को कम या ज्यादा करने के बड़े कारक हैं। एक अन्य ताजा विश्व संपदा सूचकांक के अनुसार 2000 के दौरान भारत में सर्वाधिक धनी एक प्रतिशत आबादी के पास देश की 37 प्रतिशत संपत्ति होती थी जो 2005 में बढ़कर 42 प्रतिशत, 2010 में 48 प्रतिशत, 2012 में 52 प्रतिशत और 2016 में 58.5 प्रतिशत हो गई है। अनुमान लगाया जा सकता है कि एक बड़ा वर्ग इससे खुश नहीं है, क्योंकि संपदा पर एक छोटे वर्ग का वर्चस्व लगातार बढ़ता जा रहा है। यह खामी इस नई अर्थव्यवस्था के कारण है। विकासशील देशों में तकनीक से बढ़ती बेरोजगारी भी लोगों के नाखुश रहने का एक बड़ा कारण है। एक और ताजा विरोधाभास पर गौर कीजिए। एक दिन अखबार में एक ही पन्ने पर दो अलग-अलग खबरें छपती हैं। एक खबर में फोब्र्स पत्रिका के अनुसार भारत में अरबपतियों की संख्या बढ़कर 101 होने का समाचार है जिसमें यह तथ्य भी पेश किया जाता है दुनिया में धनवानों की फेहरिस्त में भारत चौथे पायदान पर आ गया। उसी पन्ने पर दूसरी खबर है कि देश में 6.30 करोड़ ग्रामीण आज भी स्वच्छ पानी से वंचित हैं। क्या इन दोनों खबरों को पढ़ने के बाद गरीबों में खुशी के भाव की उम्मीद की जा सकती है?
हमें यह जानना होगा कि प्रति-व्यक्ति आय की गणना स्वयं में दोषपूर्ण है। नोबेल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री अमत्र्य सेन की अगुआई में फ्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति ने 100 अर्थशास्त्रियों की एक टीम गठित कर उसे यह पड़ताल करने का जिम्मा सौंपा कि क्या जीडीपी की गणना सही होती है और क्या इसका सीधा संबंध समाज की खुशहाली से है? भारत का उदाहरण देते हुए उस टीम ने अपनी रिपोर्ट में उल्लेख किया कि अगर दिल्ली के कनॉट प्लेस में ट्रैफिक जाम के दौरान निकलने वाले धुएं से कुछ गांवों में लोग फेफडों की बीमारी के शिकार हो जाएं तो वे उसका इलाज कराएंगे और इससे देश का जीडीपी तो बढ़ेगा, लेकिन लोगों की तकलीफों की कीमत पर। इसी प्रकार दोषपूर्ण जीडीपी के आधार पर हम प्रति व्यक्ति आय की गणना करते हैं और गलती से उसे समाज का विकास मान लेते हैं। आज से 20 साल पहले विख्यात समाजशास्त्री रॉबर्ट पुटनम ने अपनी किताब ‘बोलिंग अलोन’ में ‘सोशल कैपिटल’ यानी सामाजिक पूंजी का सिद्धांत दिया था। इसमें उन्होंने अमेरिकी समाज को आगाह किया था कि उनकी सामाजिक पूंजी का बुरी तरह पतन हो रहा है और कितना भी आर्थिक विकास हो जाए वह उससे उपजने वाले असंतोष पर विराम नहीं लगा पाएगा। पुटनम का कहना है कि अमेरिका एक बड़े सामाजिक संकट की ओर बढ़ रहा है। वहां राष्ट्रपति के रूप में डोनाल्ड ट्रंप का चुनाव इसी बात के संकेत हैं। भारत में यह संकट बिल्कुल अलग किस्म का है। एक सामाजिक सर्वेक्षण के अनुसार आज से 20 साल पहले तक एक भारतीय प्रतिदिन 30 मिनट सामाजिक रूप से संबद्ध रहता था। उसकी तुलना में आज वह मात्र आठ मिनट जुड़ा रहने लगा है। हालांकि लोग इंटरनेट के जरिये जरूर जुड़े रहते हैं, लेकिन वह जुड़ाव आभासी ही होता है वास्तविक नहीं। पाश्चात्य मूल्यों और जीवन शैली ने विवाह जैसी पवित्र संस्था को भी बेहद कमजोर किया है। बेंगलुरु में विवाह विच्छेद के बढ़ते मामलों के लिए तीन नई अदालतें बनाई गई हैं। विवाह एक पवित्र बंधन न होकर अनुबंध हो गया है। अब तो ‘लिव-इन’ संबंधों यानी बिना विवाह किए साथ में रहने वालों की संख्या बढ़ रही है।
कार्ल माक्र्स ने सभी सामाजिक सबंधों और सामाजिक संस्थाओं की उत्पत्ति -उत्पादन के तरीके और संसाधनों पर अधिकार के आधार पर होना बताया था। कालांतर में पाया गया कि यह सिद्धांत आंशिक रूप से ही सही है। आज इस बात की जरूरत हो गई है कि पाश्चात्य तकनीक तो स्वीकार की जाए, लेकिन उससे समाज पर उत्पन्न होने वाले नकारात्मक प्रभावों को भी रोका जाना चाहिए। पति-पत्नी दोनों कमाएं, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि अपने बच्चों की परवरिश वे ‘क्रेश’ के जिम्मे छोड़ दें। इसी तरह बूढे़ माता-पिता की जगह भी वृद्धाश्रमों के बजाय घर में होनी चाहिए। प्रसन्नता केवल आर्थिक विकास से नहीं आती। आज एक संतुलन की जरूरत है, ताकि देश में न तो पाकिस्तान सरीखा कट्टरपंथ जड़ें जमा पाए और न ही अमेरिकी मूल्यहीनता का विस्तार हो।
[ लेखक ब्राडकॉस्ट एडीटर्स एसोसिएशन के महासचिव एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं ]