ब्रह्मा चेलानी

दुनिया के सामने तेजी से बड़े खतरे के रूप में उभर रही जेहादी हिंसा से निपटने की अंतरराष्ट्रीय कोशिशों पर आर्थिक हित भारी पड़ते नजर आ रहे हैं। इसके सुबूत के लिए ज्यादा मशक्कत भी नहीं करनी पड़ेगी। हाल में जब पूरी दुनिया ब्रिटेन के तीसरे सबसे बड़े शहर मैनचेस्टर में हुए भयानक आतंकी हमले से थर्राई हुई थी तो उसी समय अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप दुनिया में आतंकी विषबेल से सबसे बड़े पोषक सऊदी अरब के हुक्मरानों संग गलबहियां कर रहे थे। यह उसी कहावत को चरितार्थ करता है कि पैसे की ताकत में बड़ी आवाज होती है। इसमें संदेह नहीं कि सऊदी अरब दुनिया में जेहाद का मुख्य वैचारिक प्रायोजक है। ऐसे में अमेरिका का यह रुख-रवैया तमाम सवाल खड़े करता है। इसका जवाब भी तकरीबन 400 अरब डॉलर के उन भारी-भरकम व्यापारिक सौदों में छिपा है जिन पर ट्रंप के दौरे में सहमति बनी। इसमें 109.7 अरब डॉलर के हथियार अनुबंध भी शामिल हैं। सबसे हैरान करने वाली बात यही है कि ट्रंप ने उस देश के साथ हथियारों के सौदे किए हैं जिसे वह अमेरिका में हुए नौ सितंबर के आतंकी हमले का कसूरवार मानते आए हैं। सऊदी अरब इस्लाम की वहाबी विचारधारा का सबसे बड़ा पैरोकार है जो दुनियाभर में इसके विस्तार में जुटा है। वहाबी इस्लाम की सबसे कट्टर धारा है जिसने मजहब के लिए शहादत की नई भावना भरी है जो आधुनिक इस्लामी आतंक का स्नोत बनी हुई है। इसके जरिये सऊदी अरब दुनिया के तमाम देशों में कायम इस्लाम की उदार विचारधारा को कुचल रहा है। वहाबी विचारधारा सलाफीवाद का ही एक हिस्सा है और सऊदी राजपरिवार दुनिया में सलाफी विचार को आगे बढ़ाने वाला सबसे बड़ा झंडाबरदार है।
चाहे अल कायदा हो या फिर आइएसआइएस, ऐसे कुख्यात इस्लामी आतंकी संगठनों की वैचारिक जड़ें सऊदी अरब के चरमपंथ में ही छिपी हैं। इसमें आइएसआइएस ने ही मैनचेस्टर हमले की जिम्मेदारी भी ली है। ट्रंप के सऊदी दौरे के आसपास ही हुए मैनचेस्टर हमले ने बतौर राष्ट्रपति पहले विदेशी दौरे के लिए धार्मिक सत्ता से संचालित होने वाले देश के उनके चयन पर सवाल भी खड़े किए हैं। उनसे पूर्व चार अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने अपने पहले विदेशी दौरे के लिए मेक्सिको या कनाडा जैसे पड़ोसी लोकतांत्रिक देशों को ही चुना। उनके उलट मूल रूप से कारोबारी ट्रंप हमेशा सौदों को अंजाम देने की ही फिराक में रहते हैं और दुनिया के सबसे बड़े तानाशाह देश चीन के साथ उनका सौ दिवसीय करार भी उनके इसी रवैये को ही दर्शाता है।
वैसे इस होड़ में ट्रंप अकेले नहीं हैं। सऊदी दीनारों की चाह में ब्रिटिश प्रधानमंत्री टेरीजा मे भी ट्रंप से लगभग डेढ़ महीना पहले रियाद का दौरा कर चुकी हैं। शायद यह इस बात का संकेत है कि ब्रेक्सिट के बाद ब्रिटेन दुनिया के धनाढ्य देशों के लिए पलक-पांवड़े बिछाने को तैयार है, क्योंकि यूरोपीय संघ से बाहर निकलने वाली धारा 50 पर दस्तखत करने के तुरंत बाद ही मे ने सऊदी अरब की उड़ान पकड़ ली। उन्होंने चीन की खुशामद भी बढ़ा दी है। अमेरिकी-ब्रिटिश सहयोग और हथियारों की मदद से यमन में सऊदी के युद्ध अपराध बढ़ गए और यमन आज भुखमरी के कगार पर है। दो साल पहले सऊदी द्वारा यमन पर बमबारी और सामुद्रिक घेरेबंदी के बाद से अकेले ब्रिटेन ने ही रियाद को तीन अरब पाउंड के हथियार बेचे हैं। जहां लंदन की दिलचस्पी हथियार तंत्रों की बिक्री में है तो ट्रंप के सौदों में जंगी साजोसामान भी शामिल है जिस पर उनके पूर्ववर्ती बराक ओबामा ने रोक लगा रखी थी।
मैनचेस्टर धमाकों को अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस की लीबिया में की गई कार्रवाई के साथ भी जोड़कर देखना होगा कि उन्होंने किस तरह मुअम्मर गद्दाफी को अपदस्थ किया। विस्फोट करने वाला वहाबी हमलावर हाल में लीबिया से ही लौटा था जो अब युद्ध की विभीषिका से बर्बाद हो गया है। विदेशी दखल की वजह से कोई भी देश इतनी जल्दी तबाह और आतंकी नहीं बना है जैसा लीबिया के मामले में देखने को मिला है। लीबिया में फैली अराजकता ओबामा की खास विरासतों में से एक है। आतंक के खिलाफ वैश्विक लड़ाई में न केवल पुरानी गलतियों से सबक लिए जाने की जरूरत है, बल्कि इसके लिए कट्टर इस्लामी विचारधारा के खिलाफ जागरूकता अभियान भी चलाना होगा। हालांकि जब तक सऊदी अरब बड़े और शक्तिशाली देशों को अरबों डॉलर के अनुबंधों की आड़ में अपनी संदिग्ध भूमिका पर पर्दा डालता रहेगा तब तक आतंक के खिलाफ यह लड़ाई बेमतलब ही कही जाएगी। ट्रंप ने अभी तक कोई ठोस आतंक विरोधी योजना नहीं बनाई है। सऊदी अरब में जुटे मुस्लिम दुनिया के तमाम देशों के नेताओं के समक्ष ट्रंप का भाषण कुछ ऐसा था कि मानो ‘अमेरिका को महान बनाने का पैरोकार’ ‘इस्लाम को फिर से महान बनाने’ की वकालत कर रहा हो। इससे पहले इस्लाम को नफरत का पर्याय और अमेरिका में मुसलमानों के प्रवेश पर पाबंदी की पैरवी करने वाले ट्रंप के सुर एकाएक बदल गए। इस्लाम को ‘दुनिया के महान पंथों में से एक’ करार देते हुए ट्रंप ने ‘सभी के प्रति सम्मान और सहिष्णुता’ का आह्वान किया।
यह विचित्र ही था कि जेहाद के सबसे बड़े गढ़ की धरती से ट्रंप बढ़ते इस्लामी चरमपंथ पर भाषण दे रहे थे। रियाद में उनके द्वारा स्थापित चरमपंथी विचारधारा से निपटने के लिए बनाए वैश्विक केंद्र से लगा कि किसी हत्यारे को ही शहर का कोतवाल बना दिया गया हो। यह अमेरिकी पाखंड का भी प्रतीक साबित होता है। अरबी राजवंशों द्वारा दूसरे देशों में इस्लामिक आतंकी समूहों और मदरसों को पोषित करने के बावजूद अमेरिका का उनसे गहरा नाता रहा है। सऊदी अरब, कतर और आतंक प्रायोजक अन्य देशों को अनुशासित किए बिना ट्रंप को आतंक विरोधी अभियान में अपेक्षित परिणाम हासिल नहीं होंगे। लगता है कि वह पहले ही मान चुके हैं कि यह कोई आसान काम नहीं है। सऊदी अरब के साथ अमेरिका की दोस्ती उसकी अर्थव्यवस्था के लिए बेहद फायदेमंद है। हालिया सौदे दर्शाते हैं कि अमेरिकी रक्षा, ऊर्जा और विनिर्माण कंपनियों के लिए सऊदी अरब दुधारू गाय बन गया है। वहीं इस क्षेत्र में ईरान से खतरे के नाम पर शिया-सुन्नी संघर्ष की भड़कती आग भी अरबी राजघरानों से अमेरिकी गठजोड़ को फायदेमंद बनाकर हथियारों के लुभावने सौदों की राह प्रशस्त करती है। सऊदी अरब में ट्रंप ने सुन्नी देशों से मजबूत गठजोड़ की हिमायत की। इसे अरब नाटो बताया जा रहा है। हालांकि सुन्नी देशों का यह समूह उन जेहादियों को ही बढ़ावा दे रहा है जो धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक देशों के लिए खतरा बनते जा रहे हैं। आइएस, अल कायदा, तालिबान, लश्कर-ए-तैयबा, बोको हराम से लेकर अल शबाब जैसे सभी आतंकी संगठन वहाबी-सलाफी समूह ही हैं जो गैर-सुन्नियों के खिलाफ हैवानियत पर आमादा हैं। इस तरह देखा जाए तो ट्रंप का यह सुन्नी प्रेम जेहाद समस्या को और उलझाकर, विभाजन की खाई को और बढ़ाकर आतंक के खिलाफ लड़ाई को और कमजोर ही करेगा।
फिलहाल आर्थिक एवं भू-सामरिक स्वार्थों की वजह से आतंक के खिलाफ वैश्विक लड़ाई पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। हिंसक जेहाद से निपटने की कुंजी यही है कि उस विचारधारा के प्रसार पर रोक लगाई जाए जो ‘आतंक की फैक्टरियों’ को ईंधन मुहैया कराती है। आतंक की जननी वहाबी विचारधारा को कुचले बिना सफलता नहीं मिल सकती, लेकिन बड़ा सवाल यही है कि बिल्ली के गले में घंटी बांधे कौन?
[ लेखक सामरिक विश्लेषक और सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में फेलो हैं ]