इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि भारत जैसे कृषि प्रधान देश में कृषि तथा किसान, दोनों उपेक्षित हैं। 60 के दशक में हरित क्रांति के बाद से देश में खाद्यान्न पर आत्मनिर्भरता की जो स्थिति बनी थी वह आज भी एक मिसाल के रूप में याद रखी गई है, लेकिन वर्तमान में हमारे देश में न तो कृषि का भविष्य सुरक्षित दिख रहा है और न ही खाद्य सुरक्षा का। इसका कारण यह है कि देश में कृषि क्षेत्र में तमाम चुनौतियां गंभीर रूप से विद्यमान हैं और इसके बावजूद केंद्र सरकार का दृष्टिकोण उदासीन बना हुआ है। आज किसान अपने अंतहीन संकटों की वजह से लगातार आत्महत्या को मजबूर हैं और सरकारी उदासीनता साफ दिख रही है। देश के किसान केंद्र सरकार से जो उम्मीद लगाए बैठे थे वह उम्मीद अब तक धरातल पर नहीं आई है। सत्ता में आने के बाद से नरेंद्र मोदी की सरकार ने किसानों के हित में अब तक कोई बड़ी पहल नहीं की है, जिसे इस क्षेत्र में बड़े बदलाव का सूचक माना जाए। कृषि और किसानों के हित की योजनाओं को बढ़ाने और उन्हें प्रोत्साहित करने की तो दूर की बात है, सरकार तमाम योजनाओं के लिए बजटीय आवंटन भी लगातार कम कर रही है। बीते बजट में वित्तमंत्री ने करीब 15 कृषि योजनाओं के लिए राज्यों का बजट कम कर दिया।
स्वतंत्रता प्राप्ति के साथ ही भारत को एक कमजोर कृषि क्षेत्र विरासत में प्राप्त हुआ। नीति-निर्माताओं ने प्रथम पंचवर्षीय योजना (1951-56) के साथ कृषि क्षेत्र पर विशेष ध्यान देना शुरू किया। लगभग प्रत्येक पंचवर्षीय योजना में कृषि क्षेत्र के विकास के लिए कुछ न कुछ प्रावधान और उपाय किए गए। साठ के दशक में हरित क्रांति के साथ कृषि क्षेत्र में एक नए युग का सूत्रपात हुआ जिसने न केवल भारतीय कृषि को आत्मनिर्भर बनाया, बल्कि भारत को एक खाद्यान्न निर्यातक देश के रूप में भी स्थापित किया। लेकिन क्या आज हम हरित क्रांति के गर्व को महसूस कर पा रहे है? जिस क्षेत्र में सर्वाधिक रोजगार है, जिस क्षेत्र का कोई विकल्प नहीं है, उस क्षेत्र की स्थिति विकट है। यदि सही मायने में बिना राजनीतिक मानसिकता के सरकार इस दिशा में ईमानदार पहल करे तो इससे न केवल खाद्य सुरक्षा की पूर्ति होगी, बल्कि किसानों की स्थिति में सुधार होगा। साथ ही, देश, समाज और अंतत: संपूर्ण आर्थिक प्रणाली में विकास और प्रगति रेखांकित होगी। आज भारत सहित संपूर्ण विश्व खाद्य सुरक्षा की चुनौतियों से जूझ रहा है। भारत में यह स्थिति ज्यादा भयावह है और आने वाले दिनों में और भी भयावह होगी। ऐसा इसलिए है, क्योंकि वर्तमान केंद्र सरकार की नीति कृषि को प्राथमिकता देने की नहीं है।
भारतीय संविधान के नीति निदेशक सिद्धांत के अंतर्गत अनुच्छेद 47 में भी कहा गया है कि राज्य अपने नागरिकों के पोषाहार स्तर, जीवन स्तर को ऊंचा करने और लोक स्वास्थ्य के सुधार को अपने प्राथमिक कर्तव्यों में शामिल करे। भारतीय नागरिकों को भूख से सुरक्षा का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 21 से प्राप्त है, जो कि अनुच्छेद 39 (क) तथा 47 के तहत राज्यों की जिम्मेदारी है। लिहाजा राज्यों की यह भी जिम्मेदारी है कि वे खाद्य उत्पादन, परीक्षण, वितरण का अपनी नीतियों के माध्यम से उन्नयन करें, जबकि हो इसका उलटा रहा है। भाजपा शासित कई राज्यों में हमने खाद्य पदार्थों की बढ़ी महंगाई से जनता को त्रस्त होते हुए देखा है।
कांग्रेस के शासनकाल में भारत में खाद्य सुरक्षा की दिशा में बहुत से कार्यक्रम और योजनाएं चलाई गई हैं। ये योजनाएं एक बच्चे को उसके जन्म से खाद्य सुरक्षा प्रदान करती हैं। जब एक महिला गर्भवती होती है तो एकीकृत बाल विकास सेवा (आइसीडीएस) के माध्यम से आंगनबाड़ी केंद्र के जरिये उसे सहायता मिलती है। गरीब महिलाओं के लिए मातृत्व लाभ योजना है। बच्चे के जन्म के बाद आइसीडीएस योजना उसकी पोषण जरूरतों को पूरा करती है। वह जब स्कूल जाता है तब उसे मिडडे मील के तहत भोजन उपलब्ध है। बच्चे के वयस्क होने पर उसे मनरेगा या अन्य रोजगार योजनाओं के माध्यम से आय प्राप्ति का विकल्प है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से उसे सस्ते मूल्य पर अनाजों की उपलब्धता है। अत्यंत गरीबों के लिए अंत्योदय योजना के माध्यम से बहुत सस्ते मूल्य पर अनाज प्राप्त होता है। वृद्धों के लिए वृद्धावस्था पेंशन तथा अन्नपूर्णा योजना है। इन सारी योजनाओं की शुरुआत कांग्रेस के काल में हुई है। इस प्रकार देखें तो इन सभी सरकारी योजनाओं में खाद्य सुरक्षा के लिए तमाम प्रयास और योजनाएं हैं। राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा कानून भी संप्रग सरकार की देन है। 22 दिसंबर 2011 को उपभोक्ता मामले, खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण मंत्री केवी. थॉमस ने इससे संबंधित बिल लोकसभा में पेश किया था। लंबे गतिरोध के बाद अंतत: पांच जुलाई 2013 को राष्ट्रपति के अध्यादेश के जरिये इसे लागू किया गया। बाद में इसे लोकसभा ने 26 अगस्त 2013 को तथा राज्यसभा ने दो सितंबर 2013 को पारित कर दिया। यह कानून देश की 75 प्रतिशत ग्रामीण तथा 50 प्रतिशत शहरी, कुल मिलाकर 67 प्रतिशत आबादी यानी करीब 82 करोड़ लोगों को खाद्य सुरक्षा का अधिकार देता है।
इस सबके बावजूद हमारे देश की खाद्य सुरक्षा का आधार दरक रहा है और वह कृषि क्षेत्र में सरकारी उदासीनता की वजह से है। कृषि क्षेत्र को उन्नत बनाकर ही वास्तव में हम खाद्यान्न सुरक्षा की नींव तैयार कर सकते हैं। भारतीय कृषि आज कई चुनौतियों का सामना कर रही है। किसानों के सामने महंगे ऋण, सिंचाई, बीज, उर्वरक आदि की समस्या है। साथ ही समुचित अनुसंधान और विकास की समस्या से भी कृषि क्षेत्र जूझ रहा है। वर्तमान में कृषि योग्य भूमि का आकार भी उद्योग हितैषी सरकार के कारण घटता जा रहा है। इन समस्याओं के बीच यह दुर्भाग्य की बात है कि मोदी सरकार किसानों के हित में नहीं दिख रही। यह सरकार यह भूल रही है कि कृषि क्षेत्र का समग्र विकास और इस पर समुचित ध्यान देकर हम अपनी उत्पादकता बढ़ा सकते हैं।
[ लेखक राजीव शंकरराव सातव, कांग्रेस के लोकसभा सदस्य हैं ]