डॉ. भरत झुनझुनवाला

किसानों को आयकर के दायरे में लाने के पक्ष में मुख्य तर्क न्याय का है। उद्यमी और किसान दोनों ही देश के नागरिक हैं। सरकार द्वारा बनाई गई सड़क के अलावा प्रदान की जा रही तमाम सुविधाओं का लाभ दोनों ही उठाते हैं। लिहाजा दोनों को ही आयकर भी देना चाहिए। कृषि आयकर के पक्ष मे दूसरा तर्क इस छूट के दुरुपयोग का है। तमाम उद्यमियों द्वारा काली कमाई को कृषि से अर्जित बताकर कर छूट हासिल की जा रही है। कुछ बड़ी कंपनियां भी कृषि संबंधित गतिविधियों में लगी हुई हैं जैसे टिशू कल्चर के पौधे बनाने में। इनके द्वारा भी कृषि आय की छूट बताकर आयकर अदा नही किया जा रहा है, लेकिन किसानों पर आयकर लगाने का सीधा असर हमारी खाद्य सुरक्षा पर पड़ सकता है। देश के किसान पहले ही दबाव में हैं जैसा कि उनके द्वारा की जा रही आत्महत्याओं से नजर भी आता है। किसानों द्वारा देशवासियों को भोजन उपलब्ध कराया जाता है, परंतु वे स्वयं भूखे हैं। इन पर आयकर का अतिरिक्त बोझ लगाना अन्याय होगा। आयकर के अतिरिक्त बोझ से किसानों की खेती छोड़ने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलेगा। ये लोग शहर में आकर रिक्शा चलाएंगे। इससे सरकार द्वारा उपलब्ध कराई जा रहीं जनहितकारी योजनाओं पर बोझ पड़ेगा।
हमारे सामने दो परस्पर विरोधी लक्ष्य हैं। एक ओर अमीर किसान को टैक्स के दायरे मे लाना है तो दूसरी ओर सभी किसानों को टैक्स के दायरे से बाहर रखकर देश की खाद्य सुरक्षा भी सुनिश्चित करनी है। इन दोनों परस्पर विरोधी तर्कों का समाधान नकदी फसलों को जीएसटी के दायरे में लाकर हासिल किया जा सकता है। वर्तमान मे 2.5 लाख रुपये से अधिक आमदनी पर आयकर देना होता है। मेरे आकलन में इससे अधिक आय अर्जित करने वाले किसान अमूमन केला, अदरक, मैंथा, नारियल, लाल मिर्च, काली मिर्च एवं गन्ने जैसी नकदी फसलें उगाते हैं। इन फसलों को जीएसटी के दायरे मे लाने से कर देनदारी का बोझ केवल बड़े किसानों पर ही पड़ेगा। ऐसा कर न्यायसंगत होगा।
कृषि और गैर-कृषि करदाताओं के बीच समानता स्वयं स्थापित हो जाएगी। चूंकि इन फसलों का अधिकाधिक उत्पादन बड़े किसान करते हैं। इससे कृषि आय की छूट का दुरुपयोग भी कम हो जाएगा। चूंकि ऐसी नकदी फसलों का उत्पादन दर्शाकर मुख्य रूप से टैक्स की बचत ही की जाती है। देश की खाद्य सुरक्षा भी प्रभावित नही होगी, क्योंकि खाद्यान्नों के उत्पादन पर जीएसटी नहीं देना होगा। देश की कल्याणकारी व्यवस्था पर भी अतिरिक्त बोझ नही पड़ेगा, क्योंकि खाद्यान्न उत्पादन करने वाले छोटे किसान जीएसटी के दायरे से बाहर होंगे। नकदी फसलों पर टैक्स लगाने से भूमिगत पानी के घटते स्तर का भी कुछ हद तक समाधान होगा। इन फसलों के उत्पादन में पानी का बडे़ पैमाने पर उपयोग होता है। इन फसलों पर जीएसटी लगाने से बाजार में उनके दाम भी बढ़ेंगे जिससे उनका उपभोग कम होगा और देश के भूमिगत जल की खपत कम होगी। इस प्रस्ताव में समस्या यह है कि किसानों द्वारा इस टैक्स को उपभोक्ता को स्थानांतरित किया जा सकता है। जैसे वर्तमान मे लाल मिर्च का दाम लगभग 160 रुपये प्रति किलो है। इस पर 18 प्रतिशत जीएसटी लगाया जाए तो लगभग 30 रुपये प्रति किलो का भार पड़ेगा। इस टैक्स के कारण यदि बाजार में लाल मिर्च के दाम 160 रुपये से बढ़ाकर 190 रुपये हो गए तो किसान पर तनिक भी बोझ नही पड़ेगा और किसान से आयकर वसूल करने का उद्देश्य निरस्त हो जाएगा। इसके विपरीत यदि बाजार में लाल मिर्च का दाम पूर्ववत 160 रुपये रहा तो इस टैक्स का भार किसान को वहन करना होगा और टैक्स प्रणाली मे न्याय स्थापित करने का उद्देश्य हासिल नहीं होगा। तमाम कृषि उत्पादों के दाम आज अंतरराष्ट्रीय बाजार द्वारा निर्धारित हो रहे है जैसे अदरक, मैंथा, रेशम, लाल मिर्च और चीनी का आयात और निर्यात दोनों हो सकता है। मेरा अनुमान है कि कृषि उत्पादों पर जीएसटी लगाने से बाजार भाव में परिवर्तन कम ही होगा। इस टैक्स का अधिकाधिक भार बड़े किसानों पर पड़ेगा और सामाजिक न्याय हासिल करने का उद्देश्य पूरा होगा। आयकर की चोरी में इन्हीं नकदी फसलों का उत्पादन दिखाने की प्रवृत्ति का भारी योगदान है। इससे यह चोरी भी कम होगी। यह समस्या का उत्तम समाधान होगा।
समस्या का एक और समाधान कृषि आय में छूट को सीमित कर हासिल किया जा सकता है। व्यवस्था बनाई जा सकती है कि उन्हीं लोगों को कृषि आयकर में छूट मिलेगी जिनकी आमदनी का इकलौता जरिया केवल कृषि है। जैसे एक उद्यमी ने फार्म बना रखा है जिसमें वह केले का उत्पादन बताकर अपनी काली कमाई को कृषि आय दिखा कर टैक्स देने से बचता है। उसके टैक्स रिटर्न में उद्योग और कृषि दोनों से आय दिखाई जाती है। ऐसे में उसकी कृषि आय पर छूट न दी जाए। कृषि आय में छूट केवल उन किसानों तक सीमित कर दी जाए जिनकी आय का एकमात्र स्नोत कृषि है। कंपनियों को भी कृषि आय मे छूट से बाहर कर दिया जाए। इससे कृषि आय की छूट का दुरुपयोग कम होगा, परंतु सामाजिक न्याय का उद्देश्य हासिल नही होगा, क्योंकि केवल कृषि से आय अर्जित करने वाला अमीर किसान अभी भी टैक्स के दायरे से बाहर होगा।
ऊपर बताए गए दोनों विकल्पों में किसानों पर टैक्स का बोझ बढ़ेगा। यह बोझ मुख्य रूप से अमीर किसानों पर डाला जाए तब भी छोटा किसान इससे अछूता नहीं रहेगा। जैसे लाल मिर्च की खेती करने वाले बड़े किसान पर टैक्स लगाया जाए और वह लाल मिर्च की खेती कम करे तो गांव में श्रम की मांग कम होगी और छोटा किसान भी प्रभावित होगा। छोटे किसानों पर पड़ने वाला यह दुष्प्रभाव सामाजिक अन्याय होगा जो पहले से ही कमाई की किल्लत झेल रहे हैं।
अमीर किसानों पर टैक्स लगाकर सामाजिक न्याय हासिल करने में हम छोटे किसानों के साथ अन्याय कर बैठेंगे। इस समस्या का निदान यह हो सकता है कि छोटे किसानों को एक न्यून राशि हर वर्ष उपलब्ध कराई जाए। विकसित देशों द्वारा इस प्रकार की सब्सिडी अपने किसानों को दी जा रही है। यह सब्सिडी विश्व व्यापार संगठन के दायरे से बाहर है। यह सब्सिडी मिलने के बाद अमीर देशों के किसान अपनी फसल को औने-पौने दाम पर बेच कर भी खुश रहते हैं। हमें भी यही प्रक्रिया अपनानी चहिए। एक अनुमान के अनुसार वर्तमान में 2.5 लाख रुपये से अधिक आय पर कृषि आयकर वसूलने से प्रतिवर्ष 25,000 करोड़ रुपये का राजस्व एकत्रित किया जा सकता है। देश मे लगभग 10 करोड़ परिवार कृषि से जीवन-यापन कर रहे हैं। कृषि आयकर से वसूली गई इस रकम को इन परिवारों में 2,500 रुपये प्रतिवर्ष की दर से वितरित कर दिया जाए। इससे दोहरा सामाजिक न्याय स्थापित होगा। अमीर किसान को टैक्स देना होगा जबकि कमजोर किसान को सब्सिडी मिलती रहेगी।
कृषि आयकर का सुझाव स्वागतयोग्य है, परंतु इसे सभी किसानों पर लगाने का उल्टा असर होगा। लिहाजा बेहतर उपाय है कि नकदी फसलों को जीएसटी के दायरे में लाया जाए। साथ ही कृषि आयकर में छूट को भी छोटे और सीमांत किसानों तक ही सीमित कर दिया जाए। दोनों ही विकल्पों से अर्जित रकम को किसान परिवारों मे सीधे वितरित कर दिया जाए तो खाद्य सुरक्षा और सामाजिक न्याय के दोनों लक्ष्य एक साथ हासिल किए जा सकते हैं।
[ लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री और आइआइएम बेंगलुरु के पूर्व प्रोफेसर हैं ]