डॉ. भरत झुनझुनवाला
आखिरकार सरकार ने एयर इंडिया के निजीकरण का निर्णय ले ही लिया। सार्वजनिक इकाइयों के निजीकरण के विरुद्ध पहला तर्क मुनाफाखोरी का दिया जा रहा है। जैसे ब्रिटिश रेल की लाइनों की निजी कंपनियों का निजीकरण कर दिया गया। पाया गया कि रेल सेवा की गुणवत्ता में कमी आई। रेलगाड़ियों ने समय पर चलना बंद कर दिया। सुरक्षा पर खर्च में कटौती हुई, परंतु रेल का किराया नहीं घटा। दक्षिण अमेरिका के कई देशों में ऐसे अनुभव देखने को मिले। निजी कंपनियों ने पानी, बस आदि सेवाओं के दाम बढ़ा दिए, लेकिन सेवा की गुणवत्ता में खासी गिरावट आई। यह समस्या सच है, परंतु यह समस्या एकाधिकार वाले क्षेत्रों में उत्पन्न होती है। जैसे पाइप से पानी की आपूर्ति का निजीकरण कर दिया जाए तो उपभोक्ता कंपनी की गिरफ्त में आ जाता है। कंपनी द्वारा पानी का दाम बढ़ा दिया जाए तो उपभोक्ता के पास दूसरा विकल्प नही रह जाता है, लेकिन एयर इंडिया एक प्रतिस्पद्र्धी बाजार में संचालित है। यदि एयर इंडिया के क्रेता द्वारा हवाई यात्रा का दाम बढ़ाया जाता है तो उपभोक्ता दूसरी निजी विमानन कंपनी से यात्रा करेंगे। इसलिए नागर विमानन एवं बैंकिंग जैसे क्षेत्रों में निजीकरण का वैसा दुष्परिणाम देखने को नहीं मिलेगा।
मुनाफाखोरी को रोकने के लिए इंदिरा गांधी ने साठ के दशक में बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया था, क्योंकि उनके द्वारा आम आदमी को सेवाएं उपलब्ध नहीं कराई जा रही थीं। साथ ही शाखाएं भी मुख्य रूप से शहरों में ही केंद्रित थीं जहां मुनाफा ज्यादा होता था। ऐसे में आम आदमी तक बैंकिंग सुविधाओं की पहुंच सुनिश्चित करने के लिए इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया। सत्तर के दशक में बैंकों के दायरे का जबरदस्त विस्तार हुआ, परंतु दूसरी समस्या उत्पन्न हो गई। भ्रष्ट बैंक अधिकारियों और भ्रष्ट उद्यमियों की मिलीभगत से सरकारी बैंको ने मनचाहे तरीके से कर्ज दिए जिनके खटाई मे पड़ने से देश की समूची बैंकिंग व्यवस्था आज रसातल में पहुंचने को मजबूर है। हम एक गड्ढे से निकले और दूसरी खाई में जा गिरे। उसी उद्देश्य को हासिल करने का दूसरा उपाय था कि रिजर्व बैंक द्वारा निजी बैंकों के प्रति सख्ती की जाती। उन्हें चिन्हित स्थानों पर शाखाएं खोलने पर मजबूर किया जाता और न करने पर भारी दंड लगाया जाता जैसे कैश रिजर्व रेशो यानी नकद आरक्षित अनुपात आदि नियमों का अनुपालन न करने पर वर्तमान में किया जा रहा है। आम आदमी तक बैंकिग सेवा का न पहुंचना वास्तव में रिजर्व बैंक के नियंत्रण की असफलता थी। इस बीमारी का सीधा उपचार था कि रिजर्व बैंक के गवर्नर को बर्खास्त कर दिया जाता। रिजर्व बैंक के कर्मचारी ठीक हो जाते तो निजी बैंक भी ठीक हो जाते, लेकिन इंदिरा गांधी ने इस सीधे रास्ते को न अपनाकर निजी बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया और अनायास ही उसी बैंकिग नौकरशाही का विस्तार कर दिया जो समस्या की जड़ थी। इंदिरा गांधी के उस निर्णय का खामियाजा हम आज तक भुगत रहे हैं।
यह सही है कि निजीकरण की आड़ में मुनाफाखोरी हो सकती है, परंतु इसका हल सरकारी नियंत्रण है न कि सार्वजनिक इकाइयों के सफेद हाथी को ढोना। निजीकरण के खिलाफ एक अन्य तर्क यह दिया जाता है कि इसमें सार्वजनिक संपत्तियों को औने-पौने दामों पर बेचा जाता है। जैसे ब्रिटिश रेलवे लाइनों को 1.8 अरब पौंड में बेच दिया गया। खरीदारों ने उन्हीं लाइनों को महज सात महीने बाद 2.7 अरब पौंड मे बेच दिया। मतलब सरकार ने बिक्री कम दाम पर कर दी थी। अपने देश में कोल ब्लॉक एवं 2-जी स्पेक्ट्रम आवंटन में इसी प्रकार का घोटाला पाया गया जिसे सुप्रीम कोर्ट ने निरस्त किया। बाद में उन्हीं संपत्तियों को कई गुना अधिक मूल्य पर बेचा गया। हमारे इस अनुभव से निष्कर्ष निकलता है कि समस्या निजीकरण की मूल नीति में नहीं, बल्कि उसके क्रियान्वयन में है। जैसे सब्जी को तेज आंच पर पकाने से अगर वह जल जाए तो यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि सब्जी को पकाना ही नहीं चाहिए।
निजीकरण के विरुद्ध तीसरा तर्क है कि निजी उद्यमियों की आम आदमी को सेवाएं मुहैया कराने मे रुचि नहीं होती है। साठ के दशक मे बैंकों के राष्ट्रीयकरण के पीछे यही तर्क दिया गया था, लेकिन दूसरे अनुभव इसका उल्टा ही बताते हैं। दक्षिण अमेरिकी देश अर्जेंटीना ने टेलीफोन, एलपीजी गैस और पानी की सेवाओं का निजीकरण कर दिया था। इंटर अमेरिकन बैंक द्वारा कराए गए एक अध्ययन में पाया गया कि निजीकरण के बाद टेलीफोन, गैस और पानी के कनेक्शन की संख्या में भारी वृद्धि हुई थी। इन सेवाओं की गुणवत्ता मे भी सुधार हुआ। अपने देश के शहरों में बिजली की आपूर्ति के निजीकरण के बाद ऐसा ही अनुभव सामने आया है। गरीब और अमीर के हाथ में नोट का रंग नहीं बदलता है। जहां क्रय शक्ति है वहां निजी कंपनियां पहुंचने के लिए बेकरार रहती हैं। इसके बावजूद यह भी सही है कि जहां आम आदमी की क्रय शक्ति नहीं होती है वहां सस्ती सरकारी सेवा का महत्व होता है। जैसे गरीब अक्सर सस्ते सरकारी स्कूल में बच्चे को भेजते हैं, परंतु देश और गरीब को सब्सिडी वाली इस सेवा का भारी आर्थिक दंड देना होता है। आज औसतन सरकारी टीचर 60,000 रुपये का वेतन उठाते हैं और उनके द्वारा पढ़ाए गए आधे बच्चे फेल होते हैं जबकि 10,000 रुपये का वेतन लेकर प्राइवेट टीचर द्वारा पढ़ाए गए 90 प्रतिशत बच्चे पास होते हैं। सस्ती सेवा के चक्कर में गरीब के बच्चे फेल हो रहे है। इस समस्या का हल आम आदमी की क्रय शक्ति में वृद्धि हासिल करना है न कि उसकी सेवा के लिए सार्वजनिक इकाइयों को पालना।
सार्वजनिक इकाइयों के निजीकरण के खिलाफ चौथा तर्क रोजगार का है। यह सही है कि निजीकृत इकाई में रोजगार का हनन होता है। जैसे एयर इंडिया में तीन वर्ष पूर्व प्रति हवाई जहाज 300 कर्मी थे जबकि अंतरराष्ट्रीय मानक लगभग 100 से 150 कर्मचारियों का है। बीते तीन वर्षों में एयर इंडिया ने इस मानक में सुधार किया है। यदि एयर इंडिया का निजीकरण तीन वर्ष पूर्व किया जाता तो निश्चित ही क्रेता द्वारा कर्मियों की संख्या में कटौती की जाती। सच यह है कि मंत्रियों एवं सचिवों के इशारों पर सार्वजनिक इकाइयों मे अनावश्यक भर्तियां की जाती हैं जो कि व्यावसायिक दृष्टि से नुकसानदेह होता है। इसलिए निजी क्रेता द्वारा कर्मियों की संख्या मे कटौती की जाती है, परंतु यह निजीकरण का केवल सीधा प्रभाव है। कुल रोजगार पर निजीकरण का फिर भी प्रभाव सकारात्मक पड़ता है।
यदि एयर इंडिया का निजीकरण कर पहले ही कर दिया गया होता तो देसी विमानन बाजार में प्रतिस्पर्धा और तीखी हो जाती। हवाई यात्रा सस्ती हो जाती। इससे व्यापार बढ़ता और रोजगार भी। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा विकासशील देशो में किए गए निजीकरण के अध्ययन में पाया गया कि इससे सीधे तौर पर रोजगार का हनन होता है, लेकिन कुल रोजगार बढ़ता है। अत: एयर इंडिया के निजीकरण के विरोध के तर्क टिकते नहीं हैं। सरकार को चाहिए कि इस नीति को सभी सार्वजनिक इकाइयों विशेषकर सरकारी बैंकों पर भी लागू किया जाए।
[ लेखक वरिष्ठ अर्थशास्त्री एवं आइआइएम बेंगलुरु के पूर्व प्रोफेसर हैं ]