गतिशीलता चराचर जगत की मूल प्रवृत्ति है। लेन-देन इसी की अभिव्यक्ति है। धन-संपत्ति की प्रचुरता से अभाव की ओर प्रवाह प्रगति का संकेत है और प्राकृतिक विधान की अनुपालना है। प्राचीन ग्रंथों में संग्रह को हेय मानते हुए इससे बचने की अनुशंसा की गयी है। दान धार्मिक कार्य है, सभी पंथों में इसका गुणगान है। ब्रिटेन के चर्चित प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने कहा था, ‘हमें जो मिलता है, उससे हमारी आजीविका चलती है, किंतु हमारे जीवन की सार्थकता उससे तय होती है, जो हम देते हैं।’ दाता का दर्जा लेने वाले से ऊपर है। दान के सही पात्र यानी निर्धन, अशक्त, परित्यक्त, विधवा, बीमार आदि को पैसे से मदद देना, पानी, खाना, कपड़ा और आश्रय देने की परंपरा सभी समुदायों में है। दधीचि मुनि ने लोकहित में अपनी अस्थियां तक दे डालीं। राजा विक्रमादित्य दीन-दुखियों को सहज ही बहुमूल्य चीजें दे देते थे। इस्लाम में भी अपनी आय का कुछ प्रतिशत भाग दान के निमित्त देने का प्रावधान है।
ईसाई अपने धनार्जन का एक अंश धर्मार्थ खर्च करते हैं। अनावश्यक संग्रह और अन्यों के अधिकार के हनन का हिसाब प्रभु के दरबार में देना होगा। वैसे भी धन और बहुमूल्य चीजों की भरमार से इसकी सुरक्षा सताएगी और आप जीवन के महत्वपूर्ण विषयों पर केंद्रित नहीं कर सकेंगे। अनुचित आदतें भी पाल सकते हैं। इसे चोर ले जाएंगे या बच्चों की कुदृष्टि पड़ेगी तो वे उचित मार्ग से भटक सकते हैं। दया या कृपा का स्वरूप देना फलदायक नहीं होता। उत्कृष्ट दान में प्रतिफल की आशा तो दूर दाता को याद ही नहीं रखना चाहिए। आज के मुखौटाप्रिय समाज में दान के सही पात्रों की पहचान दुष्कर है। कई दाता अनाथालय, वृद्धाश्रम, धार्मिक संस्थाएं जैसे औपचारिक संगठनों के जरिये दान देते हैं, हालांकि इनमें से कुछ की निष्ठाएं संदेहास्पद हैं। इसीलिए कुछ विचारक दान को जरूरतमंदों के परम हित में नहीं मानते। ऑस्कर वाइल्ड ने कहा था, ‘दान की प्रक्रिया भावुक व्यक्ति द्वारा जरूरतमंद को राहत पहुंचाने की आधी-अधूरी भरपाई का हास्यास्पद प्रयास है, जिससे गरीबी अंतत: और बढ़ जाती है।’श्रेष्ठ दान वह है, जिससे दूसरा आत्मनिर्भर और स्वाभिमानी बन सके। देने वाला कभी कंगाल नहीं होता बल्कि उसे और अधिक मिलता है और जिसने दूसरों का भला करने की ठान ली, उसका भला तो सुनिश्चित हो ही गया।
[ हरीश बड़थ्वाल ]