पिछले कुछ वर्षों से पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कहीं हिंदू-मुस्लिम तो कहीं दलित-ठाकुर या फिर अन्य जातीय गुटों में संघर्ष की जो घटनाएं घट रही हैं उनसे ऐसा लगता है कि यहां के लोग अपने पुराने गौरवशाली अतीत से परिचित नहीं या फिर उसकी परवाह नहीं कर रहे हैं। इधर एक अर्से से सहारनपुर लगातार अप्रिय कारणों से चर्चा में है। इस जिले में एक के बाद एक घटनाओं से उसका पुराना इतिहास कलंकित हो रहा है। सहारनपुर एक ऐसी जगह पर स्थित है जहां से इसका असर न केवल पूरे उत्तर प्रदेश, बल्कि हरियाणा, पंजाब और उत्तराखंड पर भी पड़ता है। यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश के अंतिम छोर पर बसा और आर्थिक दृष्टि से एक संपन्न जिला है। इसका इतिहास बेहद रोचक है और इसकी जानकारी मुझे कुछ वक्त पहले अपनी लाहौर यात्रा के दौरान मिली।

इस यात्रा के दौरान मेरी मुलाकात पाकिस्तान के तत्कालीन वित्त सचिव और पाकिस्तानी पंजाब सूबे के मुख्य सचिव रह चुके सलमान सिद्दीकी के 90 साल के ससुर से हुई। भारत की तमाम बातों के साथ ही उन्होंने अपने बारे में एक दिलचस्प वाक्या बयान किया। भारत विभाजन के पहले उनका परिवार जालंधर में रहता था और 1947 में वह खुद बंबई से ग्रेजुशन की पढ़ाई कर रहे थे। अचानक बंटवारे की खबर आई और उन्हें किसी के जरिये पता चला कि उनके परिवार को लाहौर भागना पड़ा है। परिवार के साथ उनकी पत्नी को भी भारत छोड़ना पड़ा था। वह सकते में आ गए और समझ नहीं पा रहे थे कि क्या करें? उन दिनों फोन नहीं थे। कुछ दिन बाद उन्हें अपने परिजन का पत्र मिला जिसमें इतना भर लिखा था कि अचानक भड़के दंगों के कारण वह उनकी पत्नी को लेकर लाहौर जा रहे हैं। इस पत्र में यह कुछ नहीं लिखा था कि लाहौर में कहां जाना है और कहां रहना है? वह मरीन ड्राइव पर समंदर के किनारे बैठ कर रोते रहते कि पता नहीं अब कभी परिवार के लोगों से मुलाकात होगी या नहीं, उनकी पत्नी उन्हें कभी मिल पाएगी या नहीं? आखिरकार उन्होंने बंबई से जालंधर जाने का फैसला किया। डरते-डरते उन्होंने जो ट्रेन पकड़ी वह दो दिन बाद झांसी स्टेशन पहुंची। वहां दंगाई ट्रेनों की तलाशी ले रहे थे कि कहीं कोई मुस्लिम तो नहीं है। उनके साथ एक लाला जी भी उनकी सीट पर बैठे थे। उन्होंने पूछा, बेटा तुम मुस्लिम हो? उन्होंने डर से इन्कार कर दिया तो लाला जी बोले, तुम घबराओ नहीं। दरअसल तुम मुस्लिम ही हो, तुम्हारे चप्पल बता रहे हैं। तुम ऐसा करो कि इन चप्पलों को फेंक दो और मेरे जूते पहन लो। मैं नंगे पांव रह जाऊंगा, लेकिन तुम्हारी जान बच जाएगी। उन्होंने वैसा ही किया। थोड़ी देर में दंगाई डिब्बे में आए और पूछताछ करनी शुरू की। लाला जी ने उन्हें अपना भतीजा बताकर जान बचाई। वहां से जब ट्रेन दिल्ली स्टेशन पर पहुंची तो पता चला कि इस वक्त पंजाब जाना खतरे से खाली नहीं है। वहां खूनखराबा हो रहा है।

आखिरकार उन्होंने अपने ननिहाल सहारनपुर जाने का फैसला किया, जहां उनके नाना और मामा रहते थे। जब वह वहां पहुंचे तो यह देखकर चकित रह गए कि माहौल शांत था। कहीं कोई दंगा नहीं हो रहा था और उनके नाना, मामा और अन्य रिश्तेदार आराम से रह रहे थे। मामा ने उन्हें बताया कि यहां से कोई भी मुस्लिम परिवार पाकिस्तान नहीं जा रहा और हिंदू लोग उनकी हिफाजत कर रहे हैं और पाकिस्तान जाने से रोक रहे हैं। यहां हम मुसलमानों को कोई खतरा नहीं है। इसलिए हम लोग तो पाकिस्तान नहीं जाएंगे, तुम भी यहीं पर रह जाओ। कुछ दिनों तक वहां रहने के बाद भी उनका मन नहीं लगा और उन्होंने चुपके से लाहौर जाना तय किया। एक दिन किसी ने बताया कि सहारनपुर छावनी से एक ट्रक जा रहा है जिसमें वे मुस्लिम फौजी, जिन्होंने पाकिस्तान चुना है, भेजे जा रहे हैं। छावनी जाकर उन्होंने अधिकारियों से बहुत आरजू मिन्नत की, लेकिन फौजियों ने एक गैर फौजी को ले जाने से मना कर दिया। एक हिंदू फौजी अफसर को उनकी हालत पर दया आ गई और उसने कहा हम तुम्हें कागजों पर फौजी जवान बनाकर ट्रक पर चढ़ा देंगे। कुछ ऐसी चीजें बता देंगे जो तुम रट लेना, रास्ते में कोई पूछे तो वही बताना। इससे दूसरे अफसरों को शक नहीं होगा कि तुम फौज में नहीं हो। उस ट्रक से वह किसी तरह लाहौर पहुंचे। वहां तमाम चक्कर लगाने के एक हफ्ते बाद वह अपने परिवार को खोज पाए। सहारनपुर की याद करते हुए उन्होंने बताया था कि कैसे बाद में वह बंबई से ग्रेजुएट होने की वजह से बड़े ओहदे पर पहुंचे और उनके दामाद पाकिस्तान के सबसे ताकतवर अफसर बने।

वह बार-बार सहारनपुर को याद करके रोने लगते थे और मरने से पहले एक बार सहारनपुर आना चाहते थे। यह एक तथ्य है कि सहारनपुर और साथ ही आसपास के इलाके के मुस्लिम लीग के तमाम बड़े नेता भी पाकिस्तान नहीं गए और भारत में ही रहे। मुस्लिम लीग के एक बड़े नेता शाह नजर अवश्य जिन्ना के साथ पाकिस्तान गए और वहां मंत्री बने। उनके एक खासमखास बुंदू पहलवान मानकमऊ, सहारनपुर में रहते थे। उन्हें शाह नजर ने पाकिस्तान चलने का बहुत लालच दिया, ओहदा भी देने का वादा किया, लेकिन बुंदू पहलवान आखिरी सांस तक सहारनपुर में रहे। उनका जब निधन हुआ तो वह 120 साल के थे। सहारनपुर ही वह शहर है जहां शहीद भगत सिंह के परिवार ने पाकिस्तान से आकर बसने का फैसला किया था। आज भी उनके भाई के पोते सहारनपुर में रहते हैं। जिस सहारनपुर का इतिहास इतना सद्भाव भरा रहा हो वह सांप्रदायिकता और जातिवाद की आग में क्यों झुलस रहा है? सहारनपुर को तो पूरे देश को रास्ता दिखाना चाहिए। लोगों को बैर-भाव भूलकर एक ऐसा उदाहरण पेश करना चाहिए जिससे हिंदुस्तान के लोग सबक लें।

यह काम पश्चिमी उत्तर प्रदेश के साथ देश के उन हिस्सों के लोगों को भी करना चाहिए जो जातीय-सांप्रदायिक वैमनस्य की चपेट में आते रहते हैं। सहारनपुर में ही दारूल उलूम है जो इस्लाम की पढ़ाई के लिए विख्यात है। यहीं के मौलाना महमूद मदनी को मैंने अपनी आंखों से दिल्ली के ताज पैलेस होटल में पाकिस्तानी राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ को जलील करते देखा है। उन्होंने हिंदुस्तान की तारीफ करते हुए मुशर्रफ के तर्को की धज्जियां उड़ा दी थीं। इससे मुशर्रफ इतने चिढ़ गए कि बाद में उन्होंने उनसे बात तक नहीं की। महमूद मदनी के चाचा असद मदनी इंदिरा गांधी के साथ मिलकर मुसलमानों को हिंदुस्तान की अच्छाई समझाते थे। वह इतनी अच्छी तकरीर देते थे कि लोग उन्हें सुनने दूर-दूर से आते थे। ऐसे सहारनपुर के हिंदू-मुसलमान, ठाकुर, दलित और अन्य लोगों को यह सोचना चाहिए कि वे एक खास शहर से आते हैं। उन्हें अपने शहर के समृद्ध एवं गौरवशाली अतीत को बरकरार रखना चाहिए। दरअसल ऐसा ही हर शहर के लोगों को करना चाहिए, क्योंकि एक-दूसरे के प्रति अविश्वास से समाज बनता नहीं, बिगड़ता है। ( लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं राज्यसभा के सदस्य हैं)