राजनाथ सिंह ‘सूर्य’

योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश का शासन संभाले हुए एक माह से अधिक का समय बीत गया है, लेकिन मुख्यमंत्री के रूप में उनका विरोध अभी भी जारी है। यह विरोध ठीक वैसा ही है जैसे नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री का उम्मीदवार बनाए जाने के समय देखने को मिला था। तब मोदी के संबंध में जैसा सवाल किया गया था उसी प्रकार अब पूछा जा रहा है कि योगी विकास का एजेंडा चलाएंगे या हिंदुत्व का? कई आलोचक उनकी भगवा वेशभूषा और अतीत की कुछ घटनाओं को भी आधार बना रहे हैं। इस शोरगुल के दो कारण हैं। पहला, उनका भाजपा सरकारों के प्रति पूर्वाग्रह रखना और दूसरा राष्ट्र के बारे में पश्चिमी राष्ट्र-राज्य की अवधारणा में हद से ज्यादा यकीन रखना। भाजपा का सबका साथ-सबका विकास का नारा न तो गरीबी हटाओ या समाजवाद लाओ जैसा भ्रमात्मक है और न ही किसी के मन में आशंका पैदा करने वाला। मोदी सरकार ने अब तक के अपने कामकाज से साबित कर दिया है कि वह सबका साथ सबका विकास की बात मात्र वोट बटोरने के लिए नहीं करती है, अपितु इस तरह वह भारत के खोए हुए वैभव और गौरव को वापस हासिल करना चाहती है। मोदी सरकार जैसे-जैसे इस रास्ते पर आगे बढ़ रही है वैसे-वैसे उसे जनता का समर्थन भी मिलता जा रहा है।
नोटबंदी का विरोध करने में विपक्षी दलों ने जनभावनाओं को समझने में जो भूल की, उसका कुछ सुधार वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी विधेयक का संसद में विरोध न करके किया अवश्य है, लेकिन
कथित सेक्युलरिज्म के नाम पर समाज को विभाजित रखने के उनके प्रयास में अभी कोई कमी नहीं आई है। यही वजह है कि तीन तलाक और बहुविवाह के खिलाफ मुस्लिम महिलाओं की भावनाओं की उपेक्षा कर या तो वे मौन हैं या सर्वोच्च न्यायालय में लंबित मामले अथवा विधि आयोग के समान नागरिक संहिता पर रुख को भाजपा सरकार की साजिश के रूप में प्रचारित कर रहे हैं। इस प्रकार वे लगातार जनसमर्थन की अनदेखी कर रहे हैं। हालांकि उन्हें यह बात समझ में आ गई है कि उनका कथित सेक्युलरवाद और जातिवादी रणनीति अब ज्यादा कारगर नहीं रही, फिर भी कानून का राज स्थापित करने और गैरकानूनी हरकतों को बंद कराने की योगी आदित्यनाथ की मुहिम को वे तानाशाही आचरण के रूप में प्रचारित करने का भरसक प्रयास कर रहे हैं।
भारत में अनादिकाल से राष्ट्र और राज्य को पर्यायवाची नहीं माना गया है। राष्ट्र एक सांस्कृतिक अवधारण है, जबकि राज्य एक प्रशासनिक व्यवस्था। एक राष्ट्र में कितने ही राज्य हो सकते हैं। जैसे राष्ट्र एक सांस्कृतिक अवधारणा है, वैसे ही हिंदू एक भौगोलिक अवधारणा है। इस संदर्भ में हम जर्मन, जापानी, रूसी या अमेरिकी आदि का उदाहरण दे सकते हैं। इसी भौगोलिक अवधारणा के कारण 1947 के पूर्व और बाद में भी जो हज करने जाते हैं उन्हें हिंदू का संबोधन प्राप्त होता है। भारत की सांस्कृतिक राष्ट्र की अवधारणा को समझाने के लिए 1948 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि हमारे और आपके पूर्वज तो एक ही थे। सिर्फ उपासना पद्धति बदल जाने से पूर्वज तो नहीं बदल जाएंगे। जवाहरलाल नेहरू न तो सांप्रदायिक कहलाए और न भ्रम फैलाने वाले, लेकिन जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और अन्य कुछ लोग कहते हैं कि हमारी चाहे जो उपासना पद्धति हो, हमें अपनी संस्कृति एवं पूर्वजों पर गर्व होना चाहिए और सिर्फ उपासना की समानता के कारण किसी विदेशी आक्रमणकारी से संबंध जोड़कर गौरवान्वित नहीं होना चाहिए तो कुछ लोग उन्हें सांप्रदायिक उन्माद फैलाने वाला और मुस्लिमों का दुश्मन बताकर जनता को भ्रमित करते हैं। हालांकि इस वर्ग को भी अब यह आभास होने लगा है कि इस प्रकार के ध्रुवीकरण के कारण दूसरे बड़े वर्ग को एकजुट होने की प्रेरणा मिलती है।
आखिर जब हमने बराबरी को अपना संवैधानिक आधार बनाया है तो फिर नागरिकों को पंथ, संप्रदाय, जाति या वर्ग में बांटकर देखने का क्या औचित्य है? यह समानता की अवधारणा को खंडित करने का कारण बन सकता है। एक प्रश्न और इस समय यह उभरा है कि क्या अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक में समाज का बंटवारा औचित्यपूर्ण है? सच तो यह है कि इस बंटवारे ने देश का बंटवारा कर दिया। सेक्युलरिज्म की अवधारणा नास्तिकता पर आधारित है, जबकि भारतीय सांस्कृतिक राष्ट्र की अवधारणा समानता पर आधारित है। भारत में पैदा हुए किसी पंथ या संप्रदाय ने यह नहीं कहा कि केवल मेरा रास्ता ही ठीक है और बाकी सभी निरर्थक। सभी ने कहा है कि जैसे सभी नदियों का रुख समुद्र की ओर होता है, वैसे ही सभी पंथ उस एक परम सत्य की दिशा में ले जाते हैं जिसे हम ब्रह्म कहते हैं। राज्य का कोई संप्रदाय या पंथ नहीं होता उसका धर्म होता है जो कर्तव्य के रूप में स्मरण कराया जाता है। आज भी संवैधानिक दायित्व संभालने वाले उसी कर्तव्य पालन की शपथ लेते हैं। संविधान के कतिपय प्रावधान ‘अल्पसंख्यक’ हितों की गारंटी के रूप में उद्धृत किए जाते हैं। यदि कोई गारंटी समानता के अवसर में बाधक है तो वह बाधा दूर होनी चाहिए। इसके लिए नीतियों में पारदर्शिता आवश्यक है। कोई भी यह आरोप नहीं लगा सकता कि नीतियों या उसके क्रियान्वयन में केंद्र या राज्यों की भाजपा सरकारों ने कोई भेदभाव किया है। योगी आदित्यनाथ के भगवा वस्त्रधारी होने पर उनके संकल्प और क्रियाकलापों को संशय की नजर से वही देख रहे हैं जो पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं। अपने इस दोष के कारण उनके लिए एक संन्यासी की सेवा भावना को समझ पाना संभव नहीं है। कानून का राज स्थापित करने की कोशिश से शायद कुछ लोग इसलिए असहज महसूस कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें अर्से से गैर कानूनी ढंग से काम करने के लिए प्रोत्साहन मिलता रहा है। जो भी हो, इसे समझा जाना चाहिए कि हिंदुत्व का आग्रह अपने पूर्वजों और सांस्कृतिक परंपरा के प्रति आस्था है न कि किसी पंथ अथवा संप्रदाय के उत्पीड़न का तंत्र।
[ लेखक राज्यसभा के पूर्व सदस्य हैं ]