अमेरिका के अधिकार सचेत अश्वेत एक बार फिर अपने नागरिक अधिकारों के लिए सड़कों पर उतर आए हैं, जिससे वहां ङ्क्षहसा भड़क उठी। मिसौरी प्रांत के फर्ग्यूसन इलाके से भड़की चिंगारी न्यूयार्क, शिकागो, सिएटल, लॉस एंजिल्स, ऑकलैंड, वाशिंगटन डीसी तक फैल गई। दंगों की शुरुआत तब हुई जब अमेरिकी ग्रांड ज्यूरी ने निहत्थे अश्वेत युवक माइकल ब्राउन को गोली मारने के आरोपी श्वेत पुलिस अफसर पर अभियोग नहीं चलाए जाने का फैसला सुनाया। ग्रांड ज्यूरी के फैसले से आक्रोशित लोगों ने सड़कों पर उतरकर पुलिस वाहन सहित अन्य कई वाहनों को फूंक डाला और करीब दर्जन भर भवनों में आग लगा दी। रोते-बिलखते सैकड़ों लोग फर्ग्यूसन पुलिस थाने के सामने जमा हुए और आरोपी पुलिस अधिकारी के खिलाफ नारेबाजी करने लगे। जगह-जगह दंगाई पुलिस और ज्यूरी के खिलाफ 'नस्ली' होने का आरोप लगा रहे है। इन दंगों के मूल में है मिसौरी प्रांत के फर्ग्यूसन इलाके की वह घटना जब 18 साल के अश्वेत युवक माइकल ब्राउन ने एक स्टोर से जबरन सिगार का पैकेट उठा लिया। मौके पर पहुंचे पुलिस आफिसर डारेन विल्सन से ब्राउन की तकरार हो गई। देखते ही देखते उस पुलिस अधिकारी ने उस पर गोलियां बरसा दीं। उसी पुलिस अधिकारी पर जब ज्यूरी ने अभियोग नहीं चलाने का फैसला सुनाया, अश्वेत आपे से बाहर हो गए और दंगों का सिलसिला शुरू कर दिए।

अदालती फैसले के बाद गुस्साए लोगों से शांति बनाए रखने की अपील करते हुए राष्ट्रपति ओबामा ने कहा 'हमें ज्यूरी का फैसला स्वीकार करना चाहिए। आक्रोश एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है, लेकिन हिंसा इसका जवाब नहीं है। हमें स्वीकार करना होगा कि अश्वेत अमेरिकियों और कानून लागू करने के बीच बहुत कुछ किया जाना बाकी है।' ओबामा की शांति अपील का लोगों पर खास असर नहीं पड़ा। ऐसा लगता है कि श्वेत-अश्वेत के बीच दंगों का इतिहास एक बार फिर खुद को दोहराने जा रहा है, जिसकी शुरुआत 1955 में हुई थी। अमेरिका में पहली बार ऐसी स्थिति आज से 60 साल पहले पैदा हुई थी, जब एक दिसंबर, 1955 को मांटगोमरी, अल्बामा की रोजा लुईस मैकाले पार्क्स ने बस की सीटें भर जाने के बाद अश्वेतों के लिए आरक्षित अपनी सीट किसी गौरांगी के लिए छोडऩे से इन्कार कर दिया। इस जुर्म में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। पाक्र्स की गिरफ्तारी ने जहां अश्वेतों को आक्रोश से भर दिया वहीं उनके प्रतिवाद ने उनमें अभूतपूर्व साहस का संचार किया। फिर क्या था अपमान से आक्रोशित अश्वेतों ने मांटगोमरी में बसों का बायकाट करने का निर्णय ले लिया। बाद में बस बायकाट की वह घटना अमेरिकन नागरिक अधिकार की लड़ाई का प्रतीक बनी और रोजा पार्क्स यूएस कांग्रेस द्वारा 'अश्वेत स्वाधीनता आंदोलन की जननी' और 'नागरिक अधिकारों की प्रथम महिला' के खिताबों से नवाजी गईं।

रोजा पार्क्स के प्रतिवाद ने अश्वेतों की मानसिकता में आमूल बदलाव ला दिया। अब वे शांति की राह छोड़कर अपने अधिकारों के लिए हिंसात्मक रुख अपनाने लगे। इससे 1951 से चल रहा मार्टिन लूथर किंग (जू.) का अहिंसात्मक 'सिविल राइट्स मूवमेंट' आंदोलन म्लान पडऩे लगा। इस सिलसिले में 1967 में राष्ट्रपति लिंडन जॉनसन ने दंगों पर काबू पाने के लिए जस्टिस ओटो कर्नर की अध्यक्षता में गठित आयोग ने कहा कि वंचित समूहों को अमेरिका की संपदा-संसाधनों व तमाम गतिविधियों में भागीदार बनाया जाए। राष्ट्रपति जॉनसन ने आयोग के सुझाव को मानते हुए आह्वान किया कि अमेरिका हर जगह दिखे अर्थात विविधतामय अमेरिका के विभिन्न नस्ली समूहों की उपस्थिति हर जगह दिखे। इसके लिए उन्होंने भारत की आरक्षण प्रणाली से आइडिया उधार लेकर विभिन्न नस्ली समूहों का प्रतिनिधित्व सिर्फ नौकरियों में ही नहीं, उद्योग-व्यापार में सुनिश्चित करने की नीति अख्तियार की। उनकी उस विविधता नीति (डाइवर्सिटी पॉलिसी) को उनके बाद के राष्ट्रपतियों निक्सन, कार्टर, रीगन ने भी आगे बढाया। फलस्वरूप प्राय: 28 प्रतिशत अश्वेतों को धीरे-धीरे नहीं, बड़ी तेजी से सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, फिल्म-मीडिया इत्यादि विभिन्न क्षेत्रों में ही प्रतिनिधित्व सुनिश्चित हुआ। किंतु ऐसे ढेरों क्षेत्र हैं जहां पांच दशक से डाइवर्सिटी पॉलिसी कठोरतापूर्वक लागू होने के बावजूद अश्वेतों का प्रतिनिधित्व पर्याप्त नहीं जिसे लेकर वहां तनाव रहता है, जैसे न्यायपालिका व पुलिस-प्रशासन। जिस फग्र्यूसन इलाके से दंगे भड़के हैं वहां 70 प्रतिशत आबादी अश्वेतों की है, किंतु वहां के स्थानीय पुलिस बल के 53 सदस्यों में सिर्फ तीन अश्वेत हैं। जिस ग्रांड ज्यूरी के फैसले से लोगों का गुस्सा फूटा है, वहां उसके बारह सदस्यों में नौ श्वेत और तीन ही अश्वेत हैं। पुलिस बल और न्यायपालिका में श्वेतों की भरमार वहां के अश्वेतों के लिए न्याय के मार्ग में बाधा है। इस बात का इल्म ओबामा को है इसलिए ज्यूरी के फैसले के सम्मान का अनुरोध करने के बावजूद उन्हें यह कहना पड़ा है कि अश्वेत अमेरिकियों और कानून प्रवर्तन के बीच बहुत कुछ किया जाना बाकी है। बहरहाल साठ के दशक के बाद से अमेरिका में उठे दंगों के फलस्वरूप हर बार अश्वेतों को कुछ न कुछ अधिकार मिले हैं।

उम्मीद करना चाहिए कि अश्वेतों का कानून के प्रति भरोसा जीतने के लिए वहां पुलिस-प्रशासन और न्यायपालिका में भी कठोरता से डाइवर्सिटी लागू होने का मार्ग प्रशस्त होगा। अमेरिका में न्यायपालिका की जो स्थिति है उससे बहुत ही बदतर स्थिति भारत की है। यहां की बदहाल न्यायिक व्यवस्था में सुधार के लिए पिछले दिनों मोदी सरकार ने कोलेजियम व्यवस्था, जिसमें न्यायधीश ही एक तरह से न्यायधीशों का चयन करते हैं, को खत्म करने लिए जो संशोधन विधेयक और 'राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक-2014' पेश किया उसे यहां न्यायविदों ने सहजता से नहीं लिया। सरकार के ऐतिहासिक कदम को उन्होंने न्यायपालिका को बदनाम करने का एक अभियान बताकर संदेश दे दिया कि वे किसी भी न्यायिक सुधार के पक्ष में नहीं हैं। जबकि सुधार की बहुत ज्यादा गुंजाइश है। न्यायपालिका की खामियों के चलते देश के कई सामाजिक समूहों में अमेरिका के अश्वेतों की भांति ही कानून पर भरोसा उठता जा रहा है।

(एचएल दुसाध

: लेखक दलित चिंतक हैं)