कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी एकांतवास से लौटने के बाद संसद और उसके बाहर जिस प्रकार सक्रिय हुए हैं उससे कांग्रेसजनों में आशा का संचार हुआ है और उन्हें उम्मीद है कि अब बहुत जल्दी पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी उन्हें पार्टी का पूर्ण दायित्व सौंप देंगी। उम्मीद की जा रही है कि इससे पार्टी की तंद्रा टूटेगी और कांग्रेस अपनी राजनीतिक वापसी करने में सफल होगी। वह मोदी सरकार को घेरने के लिए किसानों के पक्ष में पदयात्रएं कर रहे हैं, मछुआरों की समस्याएं उठा रहे हैं और यह साबित करने का कोई मौका भी नहीं छोड़ रहे हैं कि केंद्र सरकार को आम आदमी की परवाह नहीं।

गत दिवस वह एक कदम और आगे निकल गए जब उन्होंने मनमोहन सिंह की मोदी से मुलाकात के संदर्भ में यह कहा कि प्रधानमंत्री मोदी मनमोहन सिंह से अर्थशास्त्र का ज्ञान ले रहे थे। 1अब राहुल गांधी ही कांग्रेस के पर्याय हैं, इसमें किसी को संदेह नहीं। उनका गुणगान करने वालों की संख्या पार्टी में बढ़ती जा रही है और गाहे-बगाहे पार्टी में वंशवाद को पसंद नहीं करने वाले विरोधी स्वर भी अब उनकी हां में हां मिला रहे हैं। राहुल गांधी भले ही चाहे औपचारिक रूप से पार्टी अध्यक्ष न हों, लेकिन पार्टी संसद और उसके बाहर उन्हीं के निर्देश पर चल रही है और उनका निर्देश है कि नरेंद्र मोदी की छवि बिगाड़ने के लिए हंगामे के साथ-साथ हमलावर भी होना पड़ेगा। यही कारण है कि कांग्रेस ने राज्यसभा में उन विधेयकों को भी पारित नहीं होने दिया जिसे स्वयं उसके नेतृत्व वाली सरकार ने ही तैयार किया था और जिनकी संसदीय समितियों में समीक्षा हो चुकी है।

उनकी राजनीति का प्रमुख मुद्दा सरकार की छवि खराब करना है चाहे इसके लिए असत्य का ही सहारा क्यों न लेना पड़े, जैसा कि अमेठी के फूड पार्क के संदर्भ में देखने को मिला। हालांकि बाद में उन्हें आक्रामक से रक्षात्मक तरीका अपनाना पड़ा। राहुल गांधी की यह राजनीति कांग्रेस की हताशा की ही परिचायक है। 1दो महीने के एकांतवास से कांग्रेस को एक लाभ तो हुआ ही है कि जो राहुल गांधी दस वर्ष के संसदीय कार्यकाल में एक बार भी नहीं बोले वह अब आक्रामक दिख रहे हैं। उनकी इस आक्रामकता के फलस्वरूप पार्टी में एक ऐसा उग्र वर्ग सक्रिय हो गया है जो संख्याबल की अल्पता के बावजूद लोकसभा की कार्यवाही बाधित करने में सफल हो जाता है। यह अत्यंत आश्चर्य की बात है कि जिन राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं अर्थात बिहार, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु, वहां जाने के बजाय राहुल गांधी पंजाब और तेलंगाना घूम रहे हैं।

इन राज्यों में कांग्रेस की क्या स्थिति है, इसका वर्णन करने की जरूरत नहीं। केरल में तो वह चुनाव होने के पहले ही हार मान चुकी है। 1नेपथ्य से सत्ता संचालन करने वाले राहुल गांधी को इस सार्वजनिक सक्रियता के लिए कहां से प्रेरणा मिली? क्या दो महीने के अज्ञातवास से या फिर अपने स्वर्गीय चाचा संजय गांधी से जिन्होंने देश के मूर्धन्य नेताओं से सुसज्जित जनता पार्टी को ऐसे ही हंगामे में छविहीन कर 1980 में कांग्रेस की वापसी कराई थी। क्या मोदी सरकार की वही गति करने में राहुल गांधी को सफलता मिलेगी? संभवत: उनका आकलन यही हो, लेकिन यह आसान काम नहीं। संजय गांधी ने जिन परिस्थितियों का लाभ उठाया था उसमें और आज की परिस्थितियों में जमीन-आसमान का अंतर है। तब कांग्रेस संसद में विभाजित होने के बावजूद आज की स्थिति से बेहतर थी, राज्यों में भी उसकी सरकारों की संख्या अधिक थी तथा जनता पार्टी को उसके घटक दलों का झटका गठन के साथ ही लग चुका था। जब किसी घर की दीवार में दरार हो तो उसे गिराना आसान होता है। तत्कालीन समय में मोरारजी देसाई सरकार की चूलें अपने ही बोझ से हिल रही थीं।

ऐसे में साधारण से धक्के ने उसे ध्वस्त कर दिया। मोदी की सरकार चट्टान की तरह ठोस है। इसके साथ ही कांग्रेस सरकार के समय के अनेक घोटालों का पर्दाफाश हो रहा है। कांग्रेस की एक अन्य बड़ी उम्मीद प्रियंका गांधी वाड्रा अपने परिवार से संबंधित संदिग्ध जमीन सौदों के कारण लोकप्रियता खो रही हैं। कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती है अपनी विश्वसनीयता स्थापित करना। वर्तमान सरकार के खिलाफ उसका नकारात्मक अभियान इसलिए टिकाऊ नहीं हो सकता, क्योंकि उसकी जो साख पिछले दस वर्ष के शासनकाल में लूटपाट और भ्रष्टाचार के कारण खराब हो चुकी है उसमें हाल-फिलहाल सुधार के संकेत नजर नहीं आते। नरेंद्र मोदी का कांग्रेस के खिलाफ अभियान इसलिए सफल रहा, क्योंकि जिस विकास को उन्होंने चुनावी मुद्दा बनाया उसका गुजरात में वह उदाहरण पेश कर चुके थे। नकारात्मकता से दूसरे की छवि बिगाड़ी तभी जा सकती है जब अपने सकारात्मक मॉडल के प्रति लोगों में विश्वास पैदा किया जा सके। कांग्रेस इस चुनौती की अनदेखी कर रही है। 1कांग्रेस की वर्तमान दशा के लिए एक ही चीज जिम्मेदार है और वह है परिवार भक्ति। जब से राहुल गांधी सक्रिय हुए, कांग्रेस राज्यों में अपना प्रभाव खोती गई और लोकसभा में भी वह मुख्य विपक्षी दल का दर्जा तक पाने में असफल रही। यह सब कुछ सोनिया गांधी और राहुल के हाथों में ही सत्ता की पूरी कमान रहने के कारण हुआ। इसके पहले भी उन्होंने पदयात्रएं की हैं। रेल के अनारक्षित डिब्बों में सफर किया है।

यह भी एक तथ्य है कि हर चुनाव में मतगणना के पूर्व कांग्रेस से यही स्वर निकलता रहा कि हार की जिम्मेदारी राहुल गांधी या सोनिया गांधी की नहीं होगी। किसी लकीर को मिटाने के लिए प्रयास करने से अच्छा है उससे बड़ी लकीर खींचना। हंगामा और परनिंदा के दौर से प्रभावित होने की मानसिकता से निकलकर भारतीय जनमानस अब ‘विकास’ की ओर निहार रहा है। वह सांप्रदायिकता या अन्य विघटनकारी उपायों से अब भ्रमित होने वाला नहीं है। निश्चित ही राष्ट्रीय प्रभाव रखने वाले एक विकल्प की आवश्यकता सदैव रहती है, लेकिन इसके लिए विकल्प पेश करना होगा। केवल टोपी उछालने का दौर गुजर चुका है, परंतु यह लगता नहीं है कि राहुल गांधी इस बात को समझ पाए हैं।

(लेखक राजनाथ सिंह सूर्य राज्यसभा के पूर्व सदस्य है)