पिछले दिनों दिल्ली में आयोजित वर्ल्ड इकोनामिक फोरम के इंडिया चैप्टर के सम्मेलन में एक महत्वपूर्ण बात यह निकलकर सामने आई कि अभी भी भारतीय उद्योगपति नए निवेश से कतरा रहे हैं। यह स्थिति निराश करने वाली है, क्योंकि मोदी सरकार ने अर्थव्यवस्था को सुधारने और कारोबारी माहौल को बेहतर बनाने के लिए तमाम प्रयास किए हैं। यह चिंता का विषय बनना चाहिए कि कारोबार में सहूलियत के लिए किए गए तमाम उपायों के बाद भी उद्योगपति इसके प्रति सुनिश्चित नहीं कि वे जो नया निवेश करेंगे वह उनके लिए लाभकारी होगा। अनुकूल माहौल का अभाव न केवल बड़े उद्योगों, बल्कि छोटे- मंझोले उद्योगों के साथ-साथ व्यापारियों को भी प्रभावित कर रहा है और इसका सीधा असर रोजगार की संभावनाओं पर पड़ रहा है। एक ओर रोजगार के आकांक्षी लोगों की संख्या वर्ष दर वर्ष बढ़ती जा रही है और दूसरी ओर उनके लिए नौकरियों की संभावनाएं कम होती जा रही हैं। एक अनुमान के अनुसार प्रति वर्ष करीब एक करोड़ लोग रोजगार की तलाश करने वालों में शामिल हो जाते हैं, लेकिन इसके अनुपात में रोजगार के अवसर नहीं बढ़ पा रहे हैं। स्पष्ट है कि बेरोजगारी अर्थव्यवस्था के लिए एक बड़ी चुनौती बन चुकी है।
अपने देश में परंपरागत रूप से कृषि रोजगार का सबसे बड़ा क्षेत्र है, लेकिन उसकी खराब स्थिति किसी से छिपी नहीं। कृषि के अतिरिक्त टेक्सटाइल, लेदर, बुनियादी ढांचा और सेवा क्षेत्र रोजगार के अन्य बड़े माध्यम हैं। इनमें सेवा क्षेत्र, विशेषकर साफ्टवेयर उद्योग को अगर छोड़ दिया जाए तो शेष सभी में रोजगार के अवसर घटते दिख रहे हैं। बुनियादी ढांचे और टेक्सटाइल जैसे क्षेत्र पूंजी के संकट का भी सामना कर रहे हैं। विदेशी निवेश के जरिये इस संकट के समाधान की उम्मीद की गई थी, लेकिन अभी तक उल्लेखनीय कामयाबी नहीं मिली है। इसका एक कारण यह भी है कि विदेशी निवेशक ऐसी तकनीक से लैस हैं जिसमें कम से कम कामगारों की आवश्यकता पड़ती है। रोजगार के नए अवसर सृजित करने के दबाव का सामना कर रही सरकार ने अब खुद ही इंफ्रास्ट्रक्चर पर खर्च को बढ़ावा देने का फैसला किया है। इसके तहत मंत्रालयों से कहा गया है कि वे जल्द बजटीय राशि खर्च करें, जिससे बुनियादी ढांचे की परियोजनाओं में तेजी आए और रोजगार भी उत्पन्न हों। मंत्रालयों को बजट खर्च करने के लिए प्रेरित करना और उन्हें अतिरिक्त धन देना तात्कालिक रूप से तो सही है, लेकिन इससे बेरोजगारी की समस्या का दीर्घकालिक समाधान होने के आसार कम ही हैं।
बुनियादी ढांचे से संबंधित परियोजनाओं में सुस्ती की जड़ें संप्रग शासन की नीतिगत निष्क्रियता में निहित हैं। संप्रग शासन ने न तो नीतिगत स्तर पर और न ही क्रियान्वयन के स्तर पर बुनियादी ढांचे से संबंधित परियोजनाओं को गति देने की कोशिश की। इस क्षेत्र में विदेशी निवेश आकर्षित करना वैसे भी आसान नहीं होता और उस पर तत्कालीन सरकार की निष्क्रियता ने घरेलू उद्योगपतियों के लिए भी हालात और खराब कर दिए। इस नुकसान की भरपाई के लिए मौजूदा सरकार को इस क्षेत्र में खर्च का दायरा बढ़ाना पड़ रहा है। हालांकि सेवा और बीमा जैसे क्षेत्रों में निवेश अवश्य बढ़ा है, लेकिन इन क्षेत्रों में नए रोजगारों का सृजन कम होता है।
भारतीय उद्योगपतियों का एक अन्य संकट अंग्रेजों के जमाने के श्रम कानून हैं। यह संकट केंद्र और राज्यों, दोनों जगह है। अप्रासंगिक हो चुके श्रम कानूनों से सबसे ज्यादा छोटे और मंझोले उद्योगपति और इसी श्रेणी के व्यापारी प्रभावित हैं। श्रम कानूनों में सुधार के प्रयास वोट बैंक की राजनीति के कारण आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं। कुछ राज्यों ने आगे बढ़ने की कोशिश की है, लेकिन उनकी पहल को बड़ी आसानी से श्रमिक विरोधी ठहरा दिया जा रहा है। पता नहीं क्यों हमारा राजनीतिक वर्ग, विशेषकर वामपंथी और समाजवादी रुझान वाले दल यह समझने के लिए तैयार नहीं कि उनका यह रवैया न तो श्रमिकों का हित कर पा रहा है, न उद्योग जगत का और न ही अर्थव्यवस्था का। अनुकूल माहौल न बन पाने की एक वजह भ्रष्टाचार भी है। मोदी सरकार यह दावा कर सकती है कि उसने शीर्ष स्तर पर भ्रष्टाचार को समाप्त कर दिया है, लेकिन यही बात राज्यों के संदर्भ में नहीं कही जा सकती। मोदी सरकार को देखना होगा कि भ्रष्टाचार पर वैसी ही लगाम कम से कम भाजपा शासित राज्यों में कैसे लगे जैसी केंद्र के स्तर पर दिख रही है? लालफीताशाही की तरह से भ्रष्टाचार भी छोटे-मंझोले उद्योगों और आम व्यापारियों को सबसे अधिक प्रभावित करता है। भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने में सफलता तब मिलेगी जब राज्यों की नौकरशाही को सुधारा जाएगा। केंद्र सरकार इससे भी अनभिज्ञ नहीं हो सकती कि कर एकत्र करने के लक्ष्यों की पूर्ति करने के लिए संबंधित विभाग साम-दाम-दंड-भेद की नीति पर चलते हैं और इसकी मार छोटे-मंझोले उद्योगपतियों और व्यापारियों पर ही ज्यादा पड़ती है। प्रधानमंत्री ने इस संदर्भ में संबंधित विभागों को सचेत तो किया है, लेकिन लगता है कि मौजूदा संस्कृति बदलने में समय लगेगा।
यह सही है कि एक के बाद एक सरकारों ने कृषि के विकास को अपनी प्राथमिकता सूची में शीर्ष पर रखा, लेकिन तमाम योजनाएं भी इस क्षेत्र की उत्पादकता बढ़ाने में सफल नहीं हो सकी हैं। कृषि की जो उपेक्षा हुई उसने ग्रामीण अर्थव्यवस्था को खोखला कर डाला है। इसका एक दुष्परिणाम गांवों से शहरों में पलायन है। एक समय इस पलायन के चलते जो अकुशल लोग शहरों में आते थे उन्हें निर्माण क्षेत्र में आसानी से रोजगार मिल जाता था, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से यह क्षेत्र भी मंदी की चपेट में है। इसकी वजहें हैं ऊंची ब्याज दरें, लागत में वृद्धि, बिल्डरों के बीच कड़ी प्रतिस्पर्धा, मांग में कमी और कालेधन के लेन-देन पर सरकार की सख्ती। इन सब कारणों से आवास क्षेत्र में विकास की रफ्तार मंद पड़ गई है।
कोई भी देश रोजगार के लिए कृषि जैसे केवल एक क्षेत्र पर आश्रित नहीं रह सकता। कम से कम तब तो और भी नहीं जब उसकी उत्पादकता घटती जा रही हो। भारत में कृषि क्षेत्र की उत्पादकता घटते जाने के बावजूद ज्यादा लोग उस पर इसीलिए निर्भर हैं, क्योंकि उनके सामने रोजगार के विकल्प नहीं। कृषि पर लोगों की निर्भरता को कम करना अनिवार्य हो चुका है और यह तब संभव होगा जब अर्थव्यवस्था के जो अन्य बुनियादी आधार हैं उन सभी में बड़े पैमाने पर नए रोजगारों का सृजन हो। जीएसटी से संबंधित कानून पर अमल को मोदी सरकार ने जिस तरह अपनी प्राथमिकता बनाया है उससे कुछ उम्मीद बंधी है। माना जा रहा है कि जीएसटी पर अमल से जीडीपी में डेढ़ से दो प्रतिशत की वृद्धि होगी, लेकिन देखना यह होगा कि इससे रोजगार कितने बढ़ते हैं? बेहतर हो कि सरकार जीएसटी की दिशा में आगे बढ़ने के साथ ही छोटे-मंझोले किस्म के उद्योग चलाने वालों और आम व्यापारियों की समस्याओं का समाधान प्राथमिकता के आधार पर करे। अब जब भाजपा देश के 14 राज्यों में सीधे शासन में है या फिर शासन में भागीदार है तब फिर मोदी सरकार को इन राज्यों को निवेश के लिए अनुकूल माहौल बनाने के लिए प्रेरित-प्रोत्साहित करना होगा। इसका सकारात्मक असर शेष राज्यों पर भी पड़ सकता है।

[ लेखक संजय गुप्त, दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]