मनुष्य का जीवन कठपुतली के समान है। कठपुतली की तरह हमारी डोर भी किसी और के हाथ में है और वह जैसा चाहता है हमसे वैसा अभिनय करवाता है। हमें सिर्फ उसके निर्देशन में अभिनय करते जाना होता है। हमारे जीवन की कहानी वह पहले ही लिख चुका है। इसलिए जीवन में कभी उतार-चढ़ाव आएं तो हमें न बहुत ज्यादा भयभीत और न ही बहुत ज्यादा खुश होना चाहिए। हमें अपने जीवन की प्रत्येक परिस्थिति को उस निर्देशक की आज्ञा माननी चाहिए और फिर उसी के अनुरूप अभिनय करना चाहिए। प्रत्येक मनुष्य एक सीमित अवधि के लिए इस संसार में आता है और परमपिता ने हमारे हिस्से में जितना सुख या दुख लिखा है उसे हमें हर हाल में भोगना ही पड़ता है। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति की नियति तय है और यही प्रारब्ध यानी भाग्य है।
हमारे प्रारब्ध से हमारा पुरुषार्थ यानी कर्म जुड़ा हुआ है। इन दोनों के बीच गहरा रिश्ता होता है। जैसे कुछ लोग कहते हैं कि जब प्रत्येक मनुष्य की नियति तय है और उसके भाग्य में जो लिखा है, वही होना है तो फिर कर्म करके क्या लाभ? इसी तरह दूसरे मत के लोगों का मानना है कि भाग्य नाम की कोई चीज नहीं होती, जितना और जैसा कर्म किया जाता है उसी के अनुरूप फल मिलता है। असल में प्रारब्ध और पुरुषार्थ दोनों की ही अपनी-अपनी महत्ता है। प्रारब्ध के बगैर पुरुषार्थ अधूरा है और पुरुषार्थ के बगैर प्रारब्ध। एक गाय दलदल में फंसी हुई थी। एक लुटेरा उस राह से गुजरा। उसने गाय की मदद नहीं की, लेकिन कुछ दूर जाने पर उसे एक आभूषण मिल गया। कुछ देर बाद एक साधु भी उसी राह से गुजरे। उन्होंने गाय को दलदल से बाहर निकलने में मदद की, लेकिन कुछ दूरी पर वे स्वयं एक गड्ढे में गिर गए। यह नजारा देख रहे नारद मुनि सीधे परमपिता के पास गए और शिकायत करते हुए कहने लगे कि प्रभु धरती पर आपका प्रभाव कम हो रहा है। जो धर्म कर रहे हैं उन्हें बदले में सजा और जो अधर्म कर रहे हैं उन्हें पुरस्कार मिल रहा है। इस पर परमपिता ने जब यह कहा कि ऐसा संभव नहीं है तो नारद मुनि ने यह किस्सा उन्हें सुनाया। परमपिता ने कहा कि लुटेरे के प्रारब्ध में खजाना था, लेकिन उसने अधर्म किया इसलिए उसे एक आभूषण ही मिला। संत के प्रारब्ध में मृत्यु लिखी थी, लेकिन उन्होंने धर्म का कार्य किया तो उनकी मृत्यु हल्की चोट में बदल गई। असल में मनुष्य के पूर्व में किए गए कर्मों का फल प्रारब्ध है।
[ शंभूनाथ पांडेय ]