जो हमारे प्रयासों की पराकाष्ठा व चाहतों के उत्कर्ष के बाद भी हमें नहीं नसीब हुआ वह गंतव्य और वह भौतिकता हमारे लिए बनी ही नहीं थीं। ईश्वर जीव को सोद्देश्य इस संसार में भेजता है। हम वह बन जाना चाहते हैं जो हम बनने के लिए बने ही नहीं हैं। उस अलभ्य को प्राप्त करने की चाहत में हम शक्ति, श्रम, ऊर्जा, सामथ्र्य, पराक्रम, समय और पुरुषार्थ सब कुछ का अपव्यय कर बैठते हैं, लेकिन कुछ भी हाथ नहीं लगता सिवाय निराशा, पश्चाताप, उपेक्षा और आत्मग्लानि के। वह (ईश्वर) उसे बार-बार वही बनाता है जिसके लिए उसे बनाया गया है। जिसके प्रारब्ध में संगीतकार बनना लिखा है वह चिकित्सक, विचारक, साहित्यकार, सलाहकार, इंजीनियर और अभिनेता नहीं बन सकता। यदि चाहे भी तो कुछ दिनों के बाद वह थका-हारा स्वयं को सर्वथा असमर्थ मानकर पुन: संगीत में ही सुख व शांति का आश्रय तलाशेगा। जब-जब हम देव निर्धारित विधान को चुनौती देकर स्वयं निर्देशित मार्ग की ओर अग्रसर होने का प्रयास करते हैं तो असफलताएं सर्पदंश की तरह मुंह बाए खड़ी रहती हैं। इसके विपरीत देवकृपा स्थितियों को बदलते हुए विपरीत राहों को भी सुगम बनाती चलती है। इसके विपरीत जब हम कर्ता भाव से अपनी शक्ति क्षमता का प्रदर्शन कर किसी गंतव्य तक पहुंच भी जाते हैं तो हमें अपनी ही उपलब्धियों से निराशा होने लगती है। जो हम होना चाहते हैं उस मार्ग में सफलता, सुख और आनंद की कोई गारंटी नहीं, लेकिन जो कार्य प्रभु की अनुकंपा, अपेक्षा और निर्देश में संपन्न होते हैं सफलता उनके गंतव्य व मंतव्य की आधारशिला हो जाती है।
इस चराचर जगत में किसी भूमिका के साथ जीव की उत्पत्ति हुई है। कोई भी जीव न तो अक्षम व अपात्र है और न किसी प्रकार की दुर्लभ क्षमताओं- प्रतिभाओं से वंचित, लेकिन हम अपने कुचिंतन, कुविचार व कुसंगति के प्रभाव से जीवन के सुफल को कुफल में बदलते चले जाते हैं। देवत्व का स्थान तमोगुणी शक्तियां लेने लगती हैं और सफलता के शिखर से अवरोहण कर हम असफलता की गर्त में जाकर धंसने के लिए विवश हो जाते हैं। इसलिए हम वही बनाने का प्रयास करें जिसकी विशिष्ट शक्तियों के साथ ईश्वर ने हमें इस दुर्लभ परीक्षण के लिए संसार में भेजा है। तभी हमें शाश्वत आनंद और स्थायी सुख प्राप्त हो सकता है। इस प्रारब्ध के निर्माता हम खुद हैं।
[ डॉ. दिनेश चमोला ‘शैलेश’ ]