हर वर्ष देश के शीर्षस्थ पुलिस अधिकारियों का एक सम्मेलन होता है। इसमें सभी प्रदेशों के पुलिस महानिदेशक और केंद्रीय पुलिस बलों के प्रमुख भाग लेते हैं। इस वर्ष यह सम्मेलन गुजरात में कच्छ के रण में 18 से 20 दिसंबर तक हुआ। ऐसे सम्मेलन में प्रधानमंत्री गत वर्षों में केवल एक दिन के लिए आते थे और करीब एक घंटे बोलने के बाद चले जाते थे। पहली बार ऐसा हुआ कि प्रधानमंत्री और गृहमंत्री तीनों ही दिन सभी अधिकारियों के साथ कच्छ में ही रहे और विभिन्न विषयों पर विचारों का जो आदान-प्रदान हुआ उसमें उन्होंने भाग लिया। प्रधानमंत्री ने पुलिस अधिकारियों के लिए तीन दिन का समय निकाला, इसकी जितनी भी प्रशंसा की जाए कम होगी।

इसमें संदेह नहीं कि उन्होंने पुलिस की समस्याओं को गंभीरता से सुना होगा और यह जानकारी उनकी नीतियों में परिलक्षित हो सकती है। वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों को भी तीन दिन तक अपनी बात कहने का पूरा मौका मिला। प्रधानमंत्री ने अपनी तरफ से पुलिस अधिकारियों को अधिक संवेदनशील होने की सलाह दी। गुवाहाटी में हुए सम्मेलन में भी उन्होंने इस बात पर जोर दिया था। यह एक महत्वपूर्ण बिंदु है। इसके अलावा उन्होंने पुलिस अधिकारियों को स्थानीय समुदायों से तालमेल स्थापित करने पर भी बल दिया। इस्लामिक स्टेट के बढ़ते हुए खतरे के संदर्भ में मुस्लिम युवकों में उग्रवादी विचारधारा के प्रति आकर्षण पर विशेष चर्चा हुई। इस बात पर जोर दिया गया कि जो युवक पथभ्रमित हो चुके हैं उन्हें फिर से मुख्यधारा में लाया जाए।

तेलंगाना के पुलिस महानिदेशक ने इस विषय पर एक प्रस्तुति दी और प्रदेश में इस क्षेत्र में किए गए कार्य का विवरण दिया। साइबर अपराधों पर भी चर्चा हुई। प्रधानमंत्री ने पुलिस अधिकारियों को आधुनिक तकनीक सीखने और अपनाने पर बल दिया। महिलाओं की सुरक्षा, आपदा प्रबंधन, वैज्ञानिक सुविधाएं आदि पर भी चर्चा हुई। कुल मिलाकर सम्मेलन को सफल कहा जा सकता है।

निराशा दो बिंदुओं पर है। एक तो यह कि पुलिस सुधार पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार कोई चर्चा नहीं हुई। यह अत्यंत खेद का विषय है। पुलिस में जब तक वांछित सुधार नहीं होंगे तब तक अधिकारी कितने भी प्रतिबद्ध हों, पुलिसकर्मी कितने भी मेहनत करें, उसके सकारात्मक परिणाम अपेक्षा से बहुत कम होंगे। प्रधानमंत्री पुलिस को संवेदनशील होने की बात बार-बार कहते हैं, परंतु वास्तविकता ये है कि जब तक पुलिस को बाहरी दबाव से मुक्त नहीं किया जाएगा तब तक पुलिस चाहते हुए भी पूरी तरह संवेदनशील नहीं हो सकती। नेताओं का हुक्म उसे मानना ही पड़ता है और यह आदेश अक्सर हृदयहीन नहीं तो कम से कम जनहित में नहीं होते। विगत वर्ष गुवाहाटी में हुए सम्मेलन में प्रधानमंत्री ने स्मार्ट पुलिसिंग की व्याख्या की थी। पुलिस संवेदनशील, गतिशील, उत्तरदायी, सक्रिय और तकनीकी दृष्टि से सक्षम हो। अच्छा होता कि मोदीजी पुलिस अधिकारियों से पूछते कि स्मार्ट पुलिसिंग में क्या प्रगति हुई? ऐसा प्रतीत होता है कि इस विषय पर चर्चा नहीं हुई।

निराशा का दूसरा बिंदु यह है कि जिस सम्मेलन में प्रधानमंत्री तीन दिन तक रहे वहां उनसे पुलिस या सुरक्षा संबंधी विषय पर कुछ महत्वपूर्ण घोषणाओं की अपेक्षा की जाती है। ऐसा कुछ भी नहीं हुआ। ऐसा लगता है कि पुलिस संबंधी विषयों पर प्रधानमंत्री को सही सलाह नहीं मिल रही है। आंतरिक सुरक्षा संबंधी समस्याओं से निपटने में पुलिस की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण होती है। अगर यह अंग कमजोर हो जाए तो आंतरिक सुरक्षा की समस्याएं और विकट होती जाएंगी। वास्तव में यही हो भी रहा है, क्योंकि पुलिस विभाग अंदर से खोखला हो चुका है। नेताओं ने और नौकरशाही ने मिलकर इनका सारा सत्व चूस लिया है।

विभाग में इतनी खामियां आ गई हैं कि अब लोग पुलिस को ही अव्यवस्था के लिए सारा दोष देने लगे हैं। किन कारणों से पुलिस इतनी कमजोर हो गई है, इसे समझने की कोशिश नहीं करते। यह सही है कि पुलिस का विषय संविधान में राज्य सरकारों के अधिकार क्षेत्र में आता है। ऐसा होते हुए भी केंद्र की भूमिका अपनी जगह है और यदि केंद्र दबाव डाले तो राज्य सुधार की दिशा में चलने को विवश हो जाएंगे। दुर्भाग्य से अधिकांश राज्यों के मुख्यमंत्री सामंतवादी सोच के हैं। पुलिस को वह अपने राजनीतिक लक्ष्यों की पूर्ति का केवल एक साधन मानते हैं। नतीजा यह है कि आधुनिकीकरण के नाम पर जो कुछ थोड़ा बहुत काम हो रहा था वह भी लगभग बंद हो गया है।

प्रधानमंत्री की विदेश नीति का चारों तरफ डंका बज रहा है, अंतरराष्ट्रीय जगत में भारत का सम्मान और ख्याति बढ़ी है। दूसरी तरफ गिरती हुई आंतरिक सुरक्षा के कारण अधिकांश प्रदेशों में अंधेरा बढ़ रहा है। यह स्थिति एक चिंता का विषय है। आंतरिक सुरक्षा संबंधी नीति अभी तक परिभाषित नहीं की गई है। माओवादियों से लड़ने का मसौदा बहुत दिनों से सुना जा रहा है, परंतु अभी तक उसे भी अंतिम रूप नहीं दिया जा सका है। दूसरी तरफ खतरे के बादल और घने होते जा रहे हैं। हाल में ही एक खबर आई थी कि लश्करे तैयबा, हिजबुल मुजाहिदीन और जैशे मोहम्मद को पाकिस्तान की आइएसआइ ने आदेश दिया है कि भारत में बड़े पैमाने पर आतंकवादी घटना को अंजाम दें। अलकायदा ने भी देश में अपना जाल बिछा लिया है। यह सब खतरे की घंटियां हैं।

भारत सरकार को इन्हें सुनना चाहिए। पुलिस का सुधार किए बिना और उसे सशक्त किए बिना यह सब संभव नहीं होगा। केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों की मारक शक्ति भी और बढ़ानी पड़ेगी। तटीय सुरक्षा में अभी भी खामियां हैं, उन्हें दूर किया जाए। एनसीटीसी पर शीघ्र निर्णय लेने की आवश्यकता है। कानून की धार और पैनी करनी पड़ेगी। आतंकवाद से लड़ने की हमारी नीति सुस्पष्ट होनी चाहिए। देखना यह है कि यह सभी कार्य समय से किए जाते हैं या हम पेरिस जैसी घटना देश के किसी महानगर में होने के बाद जागेंगे?

[ लेखक प्रकाश सिंह उत्तर प्रदेश पुलिस और सीमा सुरक्षा बल के प्रमुख रह चुके हैं ]