स्वतंत्रता संग्राम के प्रमुख सेनानियों के समक्ष राजनीतिक आजादी का लक्ष्य सर्वोपरि था, परंतु यही उनकी सबसे प्रमुख चिंता नहीं थी। आजादी तो आनी ही थी। प्रश्न केवल कब का था, लेकिन उनके चिंतन में यह सदा बना रहता था कि उसके बाद क्या होगा? स्वतंत्र भारत अपने पैरों पर सम्मानपूर्वक कैसे खड़ा होगा? गरीबी, सामाजिक, सांस्कृतिक, पंथिक, क्षेत्रीय, भाषागत और अन्य कितनी ही विविधताएं उनकी इस चिंता को लगातार बढ़ाती रहती थीं। 1922 में स्वराज आने की तत्काल कोई संभावना नहीं थी। उस समय स्वतंत्र भारत के भविष्य के बारे में लगातार चिंतन करने वाले महात्मा गांधी ने एक पत्र में वे चार तत्व लिखे जिनके कारण स्वराज आने के बाद भी भारत के लोगों को खुशी नहीं मिलेगी और वे कहने लगेंगे कि पहले का प्रशासन बेहतर था। तब न्याय अधिक था, पारदर्शिता थी। ये चार चिंता कारक तत्व थे अन्याय, प्रशासन का बोझ, चुनावों के दोष और अमीरों द्वारा शोषण। आज यही चारों उस समय से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गए हैं और देश के सारे कार्यकलाप को विकृत करने में भागीदारी कर रहे हैं। गांधीजी ने उसी पत्र में लिखा था कि आशा की एकमात्र किरण है सभी तक शिक्षा को पहुंचाना। यह तो सभी जानते थे कि उनका आशय जिस प्रकार की शिक्षा से था उसमें व्यक्तित्व विकास के जिन तीन आयामों को बराबर का महत्व देना शामिल था वे थे मस्तिष्क, हाथ और हृदय। इसको अन्य ढंग से भी कहा जाता है शरीर, मस्तिष्क और आत्मा। संक्षेप में उनका आशय उस शिक्षा से नहीं था जो आज हम अपने अधिकांश बच्चों के दे रहे हैं, मगर जो इन तीन आयामों की परस्परता की चिंता ही नहीं करती है। यदि देश ने अपने बच्चों को उचित ढंग से व्यक्तित्व विकास की संपूर्णता को ध्यान में रख कर शिक्षा दी होती तो आज हर तरफ उन चार चिन्हित तत्वों का भयावह रूप हमें हर जगह दिखाई नहीं देता और प्रत्येक नागरिक उसका भुक्तभोगी है।
भारत के बैंकों का कारोबार हर स्तर पर पढ़े-लिखे और प्रशिक्षित व्यक्तियों के द्वारा ही संचालित होता है। नोटबंदी के क्रियान्वयन में यदि बैंकों में मानवीय मूल्यों का ईमानदारी से निर्वाह किया जाता तो सामान्यजन को जो कठिनाइयां हुई हैं वे एक बड़ी सीमा तक कम हो गई होतीं। जो खबरें आईं उनसे स्पष्ट हो गया कि किस प्रकार धनकुबेरों ने बैंक के अधिकारियों तथा कर्मचारियों से सांठगांठ कर पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति के साथ निर्मम अत्याचार किया। आज यह आम चर्चा है कि जिसके पास संसाधन थे वे तीस-चालीस प्रतिशत कमीशन देकर अपना पैसा काले से सफेद करने में सफल हो गए। जिस ढंग से जनधन खातों में लोगों ने काली कमाई जमा कराई वह शिक्षित समाज में सर्वत्र फैली हुई संवेदनहीनता तथा चारित्रिक दुर्बलता को उजागर करता है। अनेक निजी शिक्षा संस्थाओं ने अपने अध्यापकों को पुराने काले नोट बैंकों में जमा कराने के लिए लाइन में खड़ा कर दिया। कितनों ने कई महीनों की पगार पुराने नोट में देकर उन्हें अपने हाल पर छोड़ दिया। अनेक बार संचार माध्यम बड़े गर्व के साथ वर्णन करते हैं कि हमारे देश में अंतरराष्ट्रीय स्तर की स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हैं और विदेशों से लोग यहां उपचार के लिए आते हैं, क्योंकि उन्हें वह सस्ता पड़ता है। कितना अच्छा लगता है यह पढ़कर और जानकर, मगर यही अस्पताल एक दैनिक वेतनभोगी के साथ क्या सुलूक करते हैं उस पर ध्यान देना कोई आवश्यक नहीं समझता। देश के मेडिकल कॉलेज कैसे खुलते हैं या नहीं खुलने दिए जाते हैं, यह किसी से छुपा नहीं है। बिना उचित उपकरणों, अस्पताल सुविधाओं तथा शिक्षकों के मेडिकल कॉलेज तभी खुलते हैं जब वरिष्ठ डॉक्टरों की समिति अपने हस्ताक्षर से यह संस्तुति करती है कि वहां सभी कुछ उपलब्ध है। एक कहावत है कि भगवान तीन कोटों से बचाए-सफेद कोट, यानी डॉक्टर, काला कोट यानी वकील और भूरा कोट यानी पुलिस। प्रशासन का बोझ कितना बड़ा है, यह हर वह भुक्त भोगी जानता है जिसने तहसील या जिले स्तर के सरकारी कार्यालयों में काम कराया हो। आज प्रशासन किस तरह जनउपयोगी योजनाओं में भी धन उगाही कर लेता है इसके उदाहरण लगातार सामने आते हैं। सरकार उज्ज्वला योजना में तीन करोड़ परिवारों को नि:शुल्क गैस देने की घोषणा करती है। सामाजिक न्याय की दिशा में यह साहसिक कदम है। वास्तविकता यह है कि अपवादों को छोड़कर संभवत: हर जगह इसके लाभार्थियों को एक निश्चित राशि चुकानी ही पड़ती है। हर उस किसान को जिसकी जमीन अधिग्रहीत की जाती है, मुआवजे के चेक लेते समय एक निश्चित प्रतिशत सुविधा शुल्क देना पड़ता है। अन्यथा चक्कर लगाते रहिए। यदि भारत की प्रशासनिक व्यवस्था में ईमानदार तथा संवेदनशील लोग ही प्रवेश कर पाते तो प्रशासन का यह बोझ सामान्य नागरिक को नहीं उठाना पड़ता।
गांधीजी के संदर्भित पत्र में चुनाव के दोष का शामिल किया जाना मेरे लिए थोड़ा विस्मय का कारण बना था। 1922 में वे इसकी संकल्पना कैसे कर सके, क्योंकि चुनावों में विकृतियां तो आजादी के बाद ही उजागर होने लगी थीं और आज तो चुनावों का जनतांत्रिक मूल्यों से जुड़ाव ही समाप्त हो चुका है। मेरी शंका का समाधान गांधीजी को निकट से जानने वालों ने कई वर्ष पहले किया था। गांधीजी ने ब्रिटिश चुनाव व्यवस्था के स्वरूप का गहन अध्ययन किया था और उनकी आशंकाएं वहीं से निर्मित हुई थीं जब से भारत में जाति आधारित और मूल्यविहीन राजनीति ने जोर पकड़ा। राजनीतिक दलों ने हर प्रकार से धन संग्रह को अपना मूल अधिकार मान लिया और उन्होंने काले धन के फलने-फूलने के सभी रास्ते खोल दिए गए। जिस तेजी से काला धन बढ़ा, चुनाव सामान्य व्यक्ति की पहुंच से बाहर होते गए और जनतांत्रिक मूल्य नवविकसित शहरों की ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं के नीचे दब गए वह सभी ने देखा है। आज सारा देश काले धन और भ्रष्टाचार पर चर्चा कर रहा है। इस समय सबसे बड़ा नागरिक कर्तव्य इस चर्चा को सघन और सक्रिय बनाते हुए इसमें से व्यावहारिक समाधान के सूत्र ढूंढ़ना ही हो सकता है। नेता वे राजे-महाराजे नहीं हैं जो अपने खजाने मनमाने ढंग से अपव्यय में लगा देते थे। अब जनता से उगाहा गया धन जनता का ही रहेगा। हर व्यक्ति को यह जानने का हक है कि शासन उसे कैसे व्यय करता है? गांधीजी के उन शब्दों को समझने का समय अब आ गया है कि असली स्वराज सत्ता कुछ लोगों के हाथ में आ जाने से नहीं आएगा। वह तब आएगा जब लोगों में यह क्षमता आ जाएगी कि वे सत्ता के दुरुपयोग का प्रतिरोध कर सकें। स्वराज नागरिक के इस विश्वास पर निर्भर करता है कि वह सत्तासीनों को नियमित और नियंत्रित कर सकता है।
[ लेखक जगमोहन सिंह राजपूत, एनसीइआरटी केपूर्व निदेशक हैं ]