कृषि संकट का समाधान नहीं कर्जमाफी
उत्तर प्रदेश में किसानों की कर्ज माफी के बाद दूसरे राज्यों में भी यह सिलसिला शुरू हो गया।
जीएन वाजपेयी
उत्तर प्रदेश में किसानों की कर्ज माफी के बाद दूसरे राज्यों में भी यह सिलसिला शुरू हो गया। पंजाब, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, महाराष्ट्र आदि के बाद राजस्थान सरकार भी किसानों के लिए कर्ज माफी की घोषणा करने को बाध्य हुई। अतीत में भी कई बार ऐसा हुआ है। हालांकि यह बात अलग है कि इससे किसानों की हालत में कोई खास सुधार नहीं हुआ। कर्ज माफी से अनैतिकता को भी बढ़ावा मिलता है, क्योंकि औसत किसान यह सोचना शुरू कर देते हैं वे कर्ज चुकाए बिना ही उससे छुटकारा पा सकते हैं। इससे ऋण संस्कृति बुरी तरह प्रभावित होती है और कर्जदाताओं के बहीखाते भी बिगड़ जाते हैं। इसके अलावा केंद्र और राज्य सरकारों के खजाने की हालत भी खस्ता हो जाती है। कुछ समय पहले हुए एक अध्ययन के अनुसार कर्नाटक में प्राथमिक कृषि कर्ज सोसायटी यानी पीएसीएस की ऋण वसूली की दर 1987-88 में 74.9 प्रतिशत थी जो 1990 की कर्ज माफी के बाद 1991-92 में घटकर 41.1 प्रतिशत रह गई। ऋणदाता संस्थान किसानों को कर्ज देने से हिचकते रहे और आखिर में किसानों को कर्ज के लिए साहूकारों की देहरी पर गुहार लगानी पड़ी।
प्रधानमंत्री मोदी ने स्पष्ट रूप से कहा है कि उनकी सरकार का लक्ष्य अगले पांच वर्षों में किसानों की आमदनी को दोगुना करना है। कई अध्ययनों के अनुसार भारत में गरीबी उन्मूलन के लिए कृषि क्षेत्र में 2.3 गुना वृद्धि की दरकार होगी। वर्ष 1997 से 2014 के बीच भारत में कृषि क्षेत्र की औसत वृद्धि दर महज तीन प्रतिशत रही जो कि समग्र्र जीडीपी वृद्धि दर की तुलना में महज आधी ही है। ऐसी कमजोर वृद्धि मुश्किलों को दूर करने के लिए नाकाफी हैं। दरअसल इसी वजह से शहरी और ग्र्रामीण भारत के बीच विषमता की खाई और चौड़ी होती जा रही है। किसानों पर कर्ज का बोझ मर्ज का एक लक्षण मात्र है और इसकी असल जड़ कुछ और है। किसानों की दुर्दशा के कई बुनियादी कारण हैैं जिनमें सिकुड़ती जोत का आकार, मिट्टी की घटती उर्वर क्षमता, गिरता जलस्तर, खेती की लागत में इजाफा। इसके अलावा कमजोर उत्पादकता और इन सबसे ऊपर मानसून की अनिश्चितता भी एक बड़ी समस्या है। ऐसे में कर्ज माफी महज एक लक्षण का उपचार है और इससे रोग जड़ से नहीं मिट पाएगा।
‘लोकप्रियता की चाह’ को लेकर नेताओं में बढ़ती प्रतिस्पर्धा का ही नतीजा है कि सरकारें किसानों की कर्ज माफी के लिए मजबूर होती हैं और किसानों की भलाई के लिए ऐसे कदम उठाने की दिशा में गंभीरता से पहल नहीं करतीं जिनसे वास्तव में किसानों का भला हो सके। कर्ज माफी का अर्थशास्त्र यही कहता है कि तत्कालिक स्तर पर कोई वैकल्पिक योजना बनाई जानी चाहिए। इस साल सभी राज्यों द्वारा प्रस्तावित कर्ज माफी के आंकड़ों को जोड़ा जाए तो यह तकरीबन तीन लाख करोड़ रुपये बैठता है। यह प्रस्तावित ग्र्रामीण सड़कों के लिए खर्च होने वाली राशि के 16 गुने के बराबर है। इतनी रकम से चार लाख वेयरहाउस यानी अन्न भंडार गृह बनाए जा सकते हैं या सिंचित जमीन के दायरे को 55 प्रतिशत अधिक बढ़ाया जा सकता है जो पिछले 60 वर्षों में हासिल उपलब्धि से बड़ी थाती होगी। पांच वर्षों में किसानों की आमदनी दोगुना करने का सरकारी लक्ष्य भली मंशा और दूरदर्शिता से परिपूर्ण है। हालांकि विभिन्न तबकों विशेषकर कृषि अर्थशास्त्रियों को इसके फलीभूत होने को लेकर तमाम आशंकाएं दिखती हैं। असल में आवश्यक वित्तीय संसाधन जुटाने में सरकार की संदिग्ध क्षमता और उससे भी बढ़कर योजना के सक्षम क्रियान्वयन के चलते उनका यह संदेह गहराता है। पिछले साठ वर्षों के दौरान केंद्र और राज्यों में सत्तारूढ़ रही विभिन्न सरकारों के रवैये से भी उनकी आशंकाओं को बल मिलता है।
केंद्र सरकार द्वारा उठाए गए तमाम कदमों से यह संकेत मिलता है कि इस दिशा में व्यापक योजना बनाने के लिए गंभीर कोशिशें हो रही हैं। हालांकि इसकी सफलता काफी हद तक इस पर निर्भर करेगी कि अगले पांच वर्षों में उन्हें अमल में लाने का जिम्मा किन्हें सौंपा जाता है और इसके लिए प्राथमिकताएं कैसे तय की जाती हैं? अफसोस की बात है कि कृषि को न तो केंद्र में और न ही राज्यों में आर्थिक मंत्रालयों का हिस्सा माना जाता है। नेतृत्व भी इसके लिए सबसे काबिल मंत्री नहीं तलाशता। उसकी नजर भी गृह, वित्त, रक्षा, परिवहन और वाणिज्य जैसे कुछ मंत्रालयों पर ही होती है। मंत्रिपरिषद में हुए हालिया फेरबदल में राष्ट्रीय मीडिया में कृषि मंत्रालय को लेकर ज्यादा सुगबुगाहट नहीं हुई जबकि इसे लेकर हफ्ते भर तक अटकलों का दौर चलता रहा। भारत की लगभग 60 फीसदी आबादी अपनी आजीविका और समृद्धि के लिए कृषि पर ही निर्भर है और अगर किसी को भारत के वंचित वर्ग और सभी की जरूरतों का इतना ही ख्याल है तो फिर ऐसी उदासीनता क्यों?
कुछ कदम उठाकर किसानों की आमदनी को दोगुना बढ़ाने में मदद मिल सकती है, लेकिन इसके लिए यह सुनिश्चित करना होगा कि आरंभ से लेकर अंतिम बिंदु तक कोई कोताही न रह जाए। जिन उत्पादों के दम पर किसानों को 10 से 15 प्रतिशत अधिक खुदरा मूल्य हासिल हो सके उनका बेहतर तरीके से प्रबंधन होना चाहिए। इसके लिए तीन बिंदुओं पर ध्यान केंद्रित करना होगा। सबसे पहले तो कृषि विपणन एवं उत्पाद समिति यानी एपीएमसी को खत्म कर उसके स्थान पर मांग और आपूर्ति के आधार पर उचित बाजार व्यवस्था बनाई जाए। दूसरा यह कि खेत से लेकर बाजार तक बेहतर सड़कें बनाई जाएं जिनसे हर मौसम में आवाजाही संभव हो सके। तीसरा यह कि प्रभावी आपूर्ति श्रंखला प्रबंधन के साथ गोदाम बनाएं। किसानों को बीज, उर्वरक और पानी की संगठित रूप से निर्बाध आपूर्ति सुनिश्चित की जाए। इसकी उचित निगरानी भी हो ताकि उनकी आपूर्ति से जुड़े निजी उद्यमी कीमतों में हेरफेर कर गैरवाजिब तरीके से मुनाफा न बना लें। उपलब्ध जल संसाधनों के उचित दोहन के लिए उनका सक्षम प्रबंधन हो। साथ ही नए जल स्नोतों और छिड़काव आधारित सक्षम सिंचाई विधि को प्रोत्साहन दिया जाए।
खेती का आधुनिकीकरण हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। एक तो छोटी जोतों का एकीकरण किया जाए। दूसरा मिट्टी की सेहत बेहतर बनाई जाए। तीसरा बीज से लेकर पैदावार तक की गुणवत्ता बढ़ाई जाए। किसान और ग्र्रामीण भारत तमाम कष्ट झेल चुका। सीएसओ और आरबीआइ द्वारा अन्य क्षेत्रों की की ही तरह कृषि की प्रगति रिपोर्ट भी हर तिमाही में जारी की जाए। इसका ब्योरा भी व्यापक होना चाहिए ताकि उस पर सार्थक बहस हो सके। इस पर होने वाली चर्चा से नौकरशाही का रवैया भी बदलेगा। भले ही जीडीपी में कृषि का योगदान महज 17 प्रतिशत हो, लेकिन इससे देश के 60 फीसद लोगों के सुख-दुख तय होते हैं। कर्ज माफी के महारथी शायद इस तथ्य से वाकिफ नहीं हैं कि ऐसे उपाय से किसानों और ग्र्रामीण भारत की क्रय शक्ति पर ग्र्रहण लग जाता है, क्योंकि उनके लिए नए कर्ज के रास्ते अमूमन बंद हो जाते हैं। उन्हें अपने विमर्श में बदलाव लाने की जरूरत है।
[ लेखक सेबी और एलआइसी के पूर्व चेयरमैन हैं ]