अमूर्त स्तर पर जीवन के कार्यकलापों में हलचल और चकाचौंध यानी ध्वनि और प्रकाश का समावेश है। ये दोनों मूर्त या भौतिक अस्मिताएं हैं और इनका स्वरूप अस्थाई है। अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए इन्हें स्रोत चाहिए, स्वयं में ये पंगु हैं। दूसरे छोर पर मृत्यु, शांति और अंधकार हैं। अनंत से जन्मी ये अस्मिताएं अविनाशी हैं, इनका अस्तित्व किसी के बूते पर नहीं टिका रहता, क्योंकि इनकी प्रकृति दैविक है। नवजात शिशु के आगमन और हर्षोल्लास में मनुष्य तनिक भी यह विचार नहीं करता कि जो आया है उसे जाना है। जीवन जन्म और मरण की छोटी सी यात्रा का दूसरा नाम है। मृत्यु से ज्यादा निश्चित कुछ भी नहीं, जीवन की क्षणभंगुरता से ज्यादा अनिश्चित कुछ भी नहीं है। संकीर्ण सोच लिए वह अस्थिर साधन जुटाने में ईश्वरीय अपेक्षाओं और उनके पालन के परम लक्ष्य से विचलित हो जाता है। इस प्रक्रिया में वह नकारात्मक संवेगों यथा ईष्र्या, वैमनस्य, लालच, शत्रुभाव आदि से ग्रस्त होता है। आए दिन होती मौतों के संदेश नहीं पढ़ता। महान कवि जयशंकर प्रसाद ने कहा है कि मृत्यु दुनिया का सबसे बड़ा मौन शिक्षक है। हमें कल मरना है, इस दृष्टि से हम जीना सीख लें, तो जीवन सार्थक हो जाएगा। मृत्यु के सत्य को समझने वाला सत्कार्य में निरत रहता है और मृत्यु के उपरांत सत्कर्मों की पूंजी साथ ले जाता है। वह जीवन पूरी तरह जीता है और कभी भी मरने के लिए तैयार रहता है। वह जानता है कि दूसरों की मौत पर पुष्प अर्पित करने से अधिक महत्वपूर्ण उसे जीते जी पुष्प भेंट करना है।
मृत्यु को जीवन का विलोम नहीं,बल्कि अंग समझने से मृत्यु का भय नहीं सताता। जीवन की सबसे बड़ी क्षति मृत्यु नहीं,बल्कि जीते जी हौसलों का खत्म हो जाना है। मौत से वे भयभीत होते हैं, जो जिंदगी से दूर भागते हैं। अनुवांशिक परंपरा में अपनी संतति में अपनी प्रतिकृति देखते हुए बुद्धिमान व्यक्ति अपनी मौत से भयाकुल नहीं होगा। कहा गया है, मृत्यु तो शांतिप्रद होती है, किंतु इसका विचार मनुष्य को विचलित करता है। आध्यात्मिक स्तर पर, मृत्यु आत्मा और परमात्मा का मिलन क्षण है। दार्शनिक खलील जिब्रान ने भी कहा, नदी और समुद्र की भांति जीवन और मृत्यु एक अस्मिता के दो पाट हैं। इसलिए इससे भय निर्मूल है। हमें केवल प्रत्येक क्षण का सदुपयोग करते रहना है।
[ हरीश बड़थ्वाल ]