ज्ञान वही है जो हमें सत्य की ओर ले जाए और सत्य वही है जो धर्म को स्थापित करे। ज्ञान तत्व प्रकाश जैसा होता है, जिससे वस्तुत: मनुष्य का जीवन रूपांतरित होता है। जीवन अर्थपूर्ण और यथार्थ के धरातल तक पहुंचता है। वहीं दूसरी तरफ अज्ञान से मनुष्य का समस्त जीवन अंधकारमय होता है। वह अपने लक्ष्य से भटक जाता है। इसलिए हर मनुष्य के जीवन में परम लक्ष्य ज्ञान और सत्य की खोज का होना चाहिए। यही साधना तत्व हिंदू संस्कृति के कई सूत्रों में परिलक्षित हुआ है। उदाहरणस्वरूप उपनिषदों में वर्णित एक मंत्र का भावार्थ है-'असत्य से सत्य की ओर बढ़ें, अंधकार से प्रकाश की ओर बढ़ें, मृत्यु से अम‌र्त्य की ओर बढ़ें।' इस मंत्र के आशय में भी इसी आध्यात्मिक साधना का तत्व दृश्यमान होता है, परंतु ज्ञान की इस साधना में मनुष्य को एक और महत्वपूर्ण तत्व आत्मसात करना होता है-वह है क्रियान्वयन। यानी सद्ज्ञान की बातों पर जीवन में अमल किए बगैर ज्ञान निरर्थक है। ज्ञान साधना में क्रियान्वयन का विशेष महत्व है। सद्ज्ञान के अनुभव और उसके समग्र क्रियान्वयन की साधना ही मनुष्य को उसके सत्य स्वरूप से बोध कराती है। ज्ञान से संबंधित किसी एक बात के क्रियान्वयन को जब हम राष्ट्र धर्म की ओर मोड़ते हैं, तब ज्ञान की पूर्णता होती है। मैं, मेरा, मुझे जैसी संकुचित भावनाओं से ऊपर उठकर हम भारतीय संस्कृति, राष्ट्र प्रेम और स्वधर्म का समुचित पालन कर सकते हैं।

हम चाहें तो ज्ञान को सिर्फ समझ ही नहीं सकते, बल्कि जी भी सकते हैं। ध्यान रहे विवेक के बगैर ज्ञान भी संभव नहीं है। यही ज्ञान हमें सच्ची सोच, आकलन व जीवन के सही मूल्यों को समझने में हमारी मदद करता है। अपने निजी कार्यो की सफलता से हमें उपलब्धि तो महसूस होती है, परंतु स्वयं को सशक्त कर जब हम राष्ट्र व धर्मसाधना की प्रखर तपस्या करते हैं, तभी हम इस आध्यात्मिक ज्ञान को सही अर्थो में अपने भीतर साध सकते हैं। ज्ञान की सर्वोच्च पराकाष्ठा मनुष्य को मनुष्यता से जोड़ना है। धर्म का आधार ही लोगों में परस्पर प्रेम का संचार करना है। जब तक जीवन में सम्यक ज्ञान का बोध नहीं होता तब तक हमें धर्म की प्राप्ति भी नहीं होती।

[लाहिड़ी गुरुजी]

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